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________________ है, परिग्रह को घटाने में हिंसा, असत्य, अस्तेय, कुछ क्षणों के लिए अवश्य कभी-कभी मानव चेतना को कुशील, इन चारों पर रोक लगती है । इस ब्रत के सजग बनाता है लेकिन यह सजगता निरर्थक ही रहती परिणामस्वरूप जीवन में शान्ति और सन्तोष प्रकट है। वस्तुतः यह कितनी बड़ी म ढ़ता है कि संचय होने से सूख की वृद्धि होती है । निश्चिन्ता और सग्रह के दुष्परिणामों को हम नित्य प्रति देख रहे हैं निराकुलता आती है। ऐसी स्थिति होने से धर्म क्रिया फिर भी पशु के समान पारस्परिक विद्वेष बढ़ाकर की ओर मनुष्य का चित्त अधिकाधिक आकर्षित होता संग्रह में हम लीन हैं । है । इस ब्रत के ये वैयक्तिक लाभ हैं । किन्तु सामाजिक दृष्टि से भी यह ब्रत अत्यन्त उपयोगी है । आज जो यदि हम मानव हैं, अमीर-गरीब की खाई को आर्थिक वैषम्य दृष्टिगोचर होता है, इस ब्रत का पालन पाटना चाहत ह, दान-हान पाटना चाहते हैं, दीन-हीन के भेद को मिटाना चाहते न करने का ही परिणाम है। आथिक वैषम्य इस युग हैं तो हमें अपरिग्रह को शीघ्र अपना लेना चाहिए, की एक बहुत बड़ी समस्या है आज कुछ लोग अन्यथा परिणाम बड़े दुखद होंगे। समाजवाद के प्रति यंत्रों की सहायता से प्रचर धन एकत्र कर लेते हैं तो भारतीय जनता विशेषतः आकर्षित है, यह आकर्षण दूसरे लोग धनाभाव के कारण अपने जीवन की अनि- सर्वथा उचित है, यह वाद शोषण से मुक्ति दिलाता है, वार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने से भी वंचित रहते सबको भरपेट रोटी देता है अत्याचारों एवं अनाचारों हैं। उन्हें पेट भर रोटी, तन ढकने को वस्त्र और से प्रपीड़ित जन को सुख की सांसे लेने का पूरा अवसर औषधि जैसी चीजें भी उपलब्ध नहीं। इस स्थिति का देता है और समानता की भावना को निरंतर मूर्त रूप सामना करने के लिए अनेक वादों का जन्म हुआ है। देता रहता है। इसके (समाजवाद) अन्तर्गत सब को समाजवाद, साम्यवाद, सर्वोदयवाद आदि इसी के समान अधिकार प्राप्त होते हैं सब अपनी योग्यतानफल हैं। प्राचीन काल में परिग्रह वाद के द्वारा इस सार कार्य करने के लिए साधन सम्पन्न कराये जाते हैं समस्या का समाधान किया जाता था। .... . अतएव तथा आर्थिक दृष्टि से सब में एकरूपता लाने का सफल अगर परिग्रह ब्रत का व्यापक रूप में प्रचार और प्रयास किया जाता है वस्तुत: यह वाद भारत के लिए अंगीकार हो तो न अर्थ-वैषम्य की समस्या विकराल वरदान के रूप में वरेण्य है। रूप धारण करे और न वर्ग-संघर्ष का अवसर उपस्थित हो।' ऐसे तो अपरिग्रह सभी धर्मों का आधार है । अप रिग्रह कहने से नहीं करने से होता है। समाज के सभी सब इस तथ्य से परिचित हैं कि यह सब बाह्य धर्मों में अपरिग्रह की साधुओं और गृहस्थों के लिए वैभव है, क्षणिक है और मृत्यु होने पर मानव की आत्मा अलग-अलग व्याख्याएं हैं। हमें व्याख्या करनी है अपने एकाकी हो जाती है। अन्यायोपाजित सब द्रव्यादि यहीं लिये ना कि दूसरों के लिए .......अपरिग्रह के लिए प्रथम पर पड़े रहते हैं, फिर भी मोहवश मनुष्य उन्मत्तवत् इस बात है कि इच्छा को जैसे चाहे मोडे, बुरी इच्छा न व्यापक तत्ब से अज्ञात सा रहता है । श्मशान वैराग्य करें और यदि सदिच्छा भी करें तो उसे परमित ही रखों 7. आचार्य-श्री हस्तीमल जी, म. सा.-परिग्रह-मर्यादा, व्यक्ति और समाज के संदर्भ में, जिनवाणी, मार्च 1976 से साभार. समाजवाद में उत्पादन, वितरण एवं उपभोग पर सामाजिक नियंत्रण होता है। १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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