SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७. आगमिकगच्छ-इस गच्छ के संस्थापक शील- तेरापन्थ गुण और देवभद्र पहले पौर्णमेयक थे, बाद में आंचलिक स्थानकवासी सम्प्रदाय में आचार-विचार की हुए और फिर आगमिक हो गये। वे क्षेत्रपाल की पूजा को अनुचित बताते थे। सोलहवीं शती में इसी गच्छ शिथिलता बढ़ रही थी ।श्रावकों में उसकी प्रतिक्रिया के की एक शाखा 'कटुक' नाम से प्रसिद्ध हुई। इस शाखा दर्शन हो रहे थे। उनका मानस भिक्षुओं के प्रति श्रद्धा से विदूर हो रहा था। यह सब देखकर स्थानकवासी के अनुयायी केवल श्रावक ही थे। . . सम्प्रदाय में दीक्षित आचार्य भिक्ष (जन्म वि. स. इन गच्छों की स्थापना छोटे-मोटे कारणों से हुई ।783, कन्टालिया--जोधपुर) ने वि. सं. 1817. चैत्रहै। प्रत्येक गच्छ की साधु-चर्या पृथक्-पृथक् है । इन शुक्ला 9 के दिन अपने पृथक् सम्प्रदाय की स्थापना गच्छों में आजकल खरतरगच्छ, तपागच्छ और आंच- का सूत्रपात किया। लगभग तीन माह बाद उन्होंने लिकगच्छ ही अस्त्तिव में हैं। तेरापन्थ की दीक्षा स्वीकार की । इस अवसर पर उनके साथ तेरह साधु थे और तेरह श्रावक । स्थानकवासी इसी संख्या पर इस सम्प्रदाय का नाम "तेरापन्थ" रख दिया गया । 'तेरा' शब्द से यह भी आशय निकस्थानकवासी सम्प्रदाय की उत्पत्ति चैत्यवासी लता है कि हे भगवान ! यह तुम्हाराही मार्ग है जिस सम्प्रदाय के विरोध में हुई। पन्द्रहवीं शताब्दी में अहमदाबादवासी मुनि ज्ञानश्री के शिष्य लोकाशाह ने पर हम चल रहे हैं। आगमिक ग्रन्थों के आधार पर यह प्रस्थापित किया कि स्थानकवासी सम्प्रदाय के समान तेरापन्थ भी मूर्ति पूजा और आचार-बिचार जो आज के समाज में बत्तीस आगमों को प्रामाणिक, मानता है। तद्नुसार प्रचलित है वह आगम विहित नहीं हैं। इसे लोकागच्छ प्रमुख मान्यतायें इस प्रकार हैंनाम दिया गया। (1) षष्ठ या षष्ठोत्तर गुणस्थानवर्ती सुपात्र संयमी उत्तरकाल में सूरतवासी एक साधु ने लोकागच्छ को यथाविधि प्रदत दान ही पुण्य का मार्ग हैं। की आचार परम्परा में कुछ सुधार किया और ढं दिया सम्प्रदाय की स्थापना की । लोकागच्छ के सभी अनुयायी (2) जो आत्मशुद्धिपोषक दया है वह परमार्थिक है इस सम्प्रदाय के अनुयायी हो गये। इसके अनुसार और जिसमें साध्य और साधन शुद्धि नहीं है, वह मात्र अपना धार्मिक क्रियाकर्म मन्दिरों मे न कर स्थानकों लोकिक है.।। अथवा उपाश्रयों में करते हैं। इसलिए इस सम्प्रदाय (3) मिथ्यादृष्टि के दान, शील, तप आदि अनको स्थानकवासी सम्प्रदाय कहा जाने लगा। इसे वद्य अनुष्ठान मोक्ष प्राप्ति के ही हेतु हैं और निर्जरा साधुमार्गी भी कहते हैं । यह सम्प्रदाय ीर्थयात्रा धर्म के अन्तर्गत हैं। में भी विशेष श्रद्धा नहीं रखता। इसके साधु श्वेतवस्त्र पहनते और मुखपट्टी बांधते हैं। अठारहवीं शती में इस सम्प्रदाय में एक ही आचार्य होता है और सल्यविजय पंयास ने साधुओं को श्वेतवस्त्र के स्थान पर उसी का निर्णय अन्तिम रूप से मान्य होता है। इससे पीत वस्त्र पहिनने का विधान किया, पर आज यह संघ में फट नही हो पाती। अभी तक तेरापन्थ के आचार में दिखाई नहीं देता । भट्टारक प्रथा भी इसी आठ आचार्य हो चुके हैं-भिक्षु (भीखम), भारमल, समय प्रारम्भ हुई। - . रामचन्द्र, जीतमल, मछवागणी, माणकगणी, डालगणी, १२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy