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________________ आशाधर ने उनके आचार को म्लेच्छों के आचार के टन करते और वैद्यक यन्त्र, मन्त्र, गण्डा, ताबीज आदि समान बताया है । सोमदेव ने भी यशस्तिलक चम्पू में कुशल होते हैं। में इसका उल्लेख किया है । इबेताम्बर चैत्यवासियों में ये श्रावकों को सुविहित साधुओं के पास जाते हुए भी इसी प्रकार का कुत्सित आचरण घर कर गया था, रोकते हैं, शाप देने का भय दिखाते हैं, परस्पर विरोध जिसका उल्लेख हरिभद्र ने संबोध प्रकरण में किया है। उन्होंने लिखा है कि ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं. रखते हैं, और चेलों के लिए एक दूसरे से लड़ मरते हैं। पूजा करने का आरम्भ करते हैं, देव द्रव्य का उपभोग जो लोग इन भ्रष्टचारियों को भी मुनि मानते करते हैं, जिन मन्दिर और शालाऐं चिनवाते है, रंग-बिरंगे थे, उनको लक्ष्य करके हरिभद्र ने कहा है, "कुछ अज्ञानी सुगन्धित धूपवासित वस्त्र पहिनते हैं, बिना नाथ के बैलों कहते हैं कि यह तीर्थकरों का वेष है. इसे भी नमस्कार के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं, आयिकाओं द्वारा लाये करना चाहिए । अहो ! धिक्कार हो इन्हें । मैं अपने गये पदार्थ खाते हैं और तरह तरह के उपकरण रखते त शिर के शूल की पुकार किसके आगे जाकर करूं।" हैं । जल, फल, फूल आदि संचित्त द्रव्यों का उपभोग करते हैं. दो तीन बार भोजन करते और ताम्बूल दिगम्बर साधुओं में भी लगभग इसी प्रकार का लवंगादि भी खाते हैं। आचरण प्रचलित हो गया था। महेन्द्रसूरि की शतपदी (वि. स. 1263) इसका प्रमाण है। तदनुसार दिगम्बर ये मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं, भभूत मुनि नग्नत्व के प्रावरण के लिए योगपट्ट (रेशमी वस्त्र) भी देते है । ज्योनारों में मिष्ठाहार प्राप्त करते हैं, आदि धारण करते थे। उत्तर काल में उसका स्थान आहार के लिए खुशामद करते है और पूछने पर भी वस्त्र ने ले लिया। श्र तसगर की तत्वार्थसूत्र टीका में यह सत्य धर्म नहीं बतलाते । भी लिखा है कि शीतकाल में ये दिगम्बर मनि कम्बल स्वयं भ्रष्ट होते हए भी दूसरों से आलोचना प्रति- आदि भी ग्रहण कर लेते थे और शीतकाल के व्यतीत कमण कराते हैं । स्नान करते, तेल लगाते, श्रगार होने के उपरान्त वे उन्हें छोड़ देते थे। धीरे-धीरे ऋतु करते और इत्र फुलेल का उपयोग करते हैं । अपने काल का भी बन्धनत्व दूर हो गया और साधु यथेच्छ हीनाचारी मृतक गुरूओं की दाहभूमि पर स्तप बनवाते वस्त्र धारण करने लगे । साथ ही गद्दे, तकिये, पालकी हैं। स्त्रियों के समक्ष ध्याख्याम देते हैं और स्त्रियाँ छत्र, चंवर, मठ, सम्पत्ति आदि विलासी सामग्री का उनके गुणों के गीत गाती हैं। भी परिग्रह बढ़ने लगा । ऐसे साधुओं को भट्टारक अथवा चैत्यवासी कहा गया है । सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के बहाने बिकथायें किया करते हैं । चेला बनाने के उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि मध्यकालीन जैन लिए छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों को ठगाते संघ में यह शिथिलाचार सुरसा की भाँति बढ़ता चला और जिन प्रतिमाओं को भी बेचते खरीदते हैं । उच्चा- जा रहा था। विशुद्धतावादी आचार्यों ने उसकी घनघोर 42. अनागार धर्मामृत, 2,96. 43. जैन साहित्य और इतिहास-पृ. 489. 44. संबोध प्रकरण, 76: जैन साहित्य का इतिहास, पृ. 480-81. ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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