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________________ वस्त्र का उपयोग कर लेता, है अन्यथा उसे पास रखे इसका मूल कारण है कि पाश्वं परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत रहता है। को अपरिग्रह ब्रत में सम्मिलित कर दिया गया था। केशी और गौतम के संवाद में आये हए सान्त- 'पञ्चाशक विवरण' में कहा गया है कि प्रथम रोत्तर का तात्पर्य भी यही है कि पार्श्वनाथ परम्परा और अन्तिम तीर्थकरों के अनुयायी साधु स्वभावतः के साधु अचेलक तो थे पर आवश्यकता पड़ने पर वे कठिन और वक्रजड़ होते थे। इसलिए उन्हें अचेलाववस्त्र भी धारण कर लेते थे जबकि महावीर के धर्म में स्था का पालन करना आवश्यक बताया गया जबकि साधु पूर्णत: अचेलक अवस्था में रहता था। साधु सचे- बीच के बाईस तीर्थ करों के अनुयायी साधु स्वभावतः लक वही हो सकता था जो अचेलक होने में असमर्थ सरल और बुद्धिमान थे, अत: उन्हें आवश्यकता पड़ने रहता था। पालि साहित्य में निग्गण्ठ साधुओं को जो पर सचेलावस्था को भी विहित बना दिया गया 128 'एकसाटका' कहा गया है वह भी हमारे मत का पोषण करता है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी साधु को अपरिग्रही होना आवश्यक बताया गया है ।29 आचारंगसूत्र - पार्श्वनाथ परम्परा में महावीर के समय तक उसमें एतदर्थ द्वष्टव्य है। उसमें अचेलक साधु की प्रशंसा की चारित्रिक पतन हो गया था। इसलिए उस परम्परा के गयी है और उसे वस्त्रादि से निश्चिन्त बताया गया अनुयायी साधुओं को 'पासावज्जिय ( पार्वापत्यीय) है। 30 ठाणांग (सूत्र 171) में वस्त्र धारण करने के अथवा 'पासज्ज' (पार्श्वस्थ) कहा जाने लगा । पास- तीन कारणों का उल्लेख मिलता है-लज्जा निवारण, ज्ज का तात्पर्य है कर्म से बंधा हुआ साधु । यह शब्द ग्लानि निवारण और परिषह निवारण । आगे पाँच इतना अधिक प्रचलित हो गया कि चरित्र से पतित कारणों से अचेलावस्था की प्रशंसा की गई है-प्रतिसाधु का वह पर्यायवाची बन गया ।26 सूत्रकृतांग में लेखना की अल्पता, लाघवता, विश्वस्तरूपता, तपपार्श्वस्थ साधुओं को अनार्य, बाल, जिनशासन से शीलता और इन्द्रिय निग्रहता । और भी अन्य आगमों विमुख एवं स्त्रियों में आसक्त कहा गया है। भगवती में अचेलावस्था को प्रशस्त माना आराधना (गाथा 1300, आदि में भी पार्श्वस्थ असमर्थता होने पर ही वस्त्र ग्रहण करने की अनज्ञा साधुओं का चरित्र चित्रण इसी प्रकार किया गया है। दी गई है। 23. जैन साहित्य का इतिहास: पूर्व पीठिका-397-98. 24. उत्तराध्ययन, 23-29-33. 25. तत्रिदं भन्ते, पूरणेन कस्सपेन लोहिताभिजाति पञ्चता, निग्गण्ठा एकसाटका, अगुत्तरनिकाय 6-6-3. 26. सूत्रकृतांग-1-1-2-5 वृत्ति; 27. सूत्रकृतांग--3-4-3 वृत्ति. . 28. पञ्चःशक विवरण 17-8-10; 29. आचारंग-5,150-152. 30. आचारंगसूत्र-182. 31. ठाणांगसूत्र-5 ११२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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