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________________ अष्टम निन्हव के रूप में दिगम्बर मत की उत्पत्ति की मुनियों-निर्ग्रन्थों को भी रात्रि भोजन प्रारम्भ करना कल्पना की हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि उपयुक्त पड़ा। एक बार अंधकार में भिक्षा की खोज में निकले संहननादि का अभाव होने से जिनकल्प का धारण निर्ग्रन्थ को देखकर भय से एक गभिणी का गर्भपात करना अब शक्य नहीं। इससे यह स्पष्ट है कि दिगम्बर हो गया। इस घटना के मूल कारण को दूर करने के सम्प्रदाय की उत्पत्ति अर्वाचीन नहीं, प्राचीनतर है। लिये श्रावकों ने मुनियों को "अर्धफलक' (अर्धवस्यऋषभदेव ने जिनकल्प की ही स्थापना की थी और खण्ड) धारण करने के लिये निवेदन किया । सभिक्ष वह अविच्छिन्नरूप से श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार हो जाने पर रामिल्ल, स्थविर स्थल और भद्राचार्य ने भी जम्बूस्वामी तक चला आया। बाद में उसका तो मुनिव्रत धारण कर लिये पर जिन्हें वह अनुकूल विच्छेद हुअ । शिवभूति ने उसकी पुन: स्थापना की। नहीं लगा, उन्होंने जिनकल्प के स्थान पर अर्धफलक अतः जिनकल्प को निन्हव कैसे कहा जा सकता है ! सम्प्रदाय की स्थापना कर ली। उत्तरकासा में इसी और फिर बोटिक का सम्बन्ध दिगम्बर सम्प्रदाय से अर्धफलक सम्प्रदाय से काम्बल सम्प्रदाय, फिर यापनीय कैसे लिया जाय, इसका स्पष्टीकरण श्वेताम्बर साहित्य संघ और बाद में इबेताम्बर संघ की उत्पत्ति हई। में नहीं मिलता। सम्भव है, बोटिक नाम का कोई पृथक सम्प्रदाय ही रहा होगा जिसका अधिक समय तक देवसेन के 'दर्शनसार' (वि. सं. 999) में अस्तित्व नहीं रह सका। एतत् सम्बन्धी कथा इस प्रकार मिलती है श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति विक्रमाधिपति की मृत्यु के 136 वर्ष बाद सौराष्ट देश के बलभीपूर में श्वेताम्बर संध की उत्पत्ति हई। दिगम्बर साहित्य में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति के विषय में जो कथानक मिलते हैं बे इस प्रकार इस संघ की उत्पत्ति में मूल कारण भद्रबाहुगणि के आचार्य शान्ति के शिष्य जिनचन्द्र नामक एक शिथि लाचारी साधु था। उसने स्त्री-मोक्ष, कवलाहार, सव. हरिषेण के वृहत्कथाकोश (शक संवत् 853) स्त्र मुक्ति, महावीर का गर्भ परिवर्तन आदि जैसे मत में यह उल्लेख मिलता है कि गोवर्धन के शिष्य श्रुत- प्रस्थापित किये थे ।। केवली भद्रबाह ने उज्जयिनी में द्वादशवर्षीय दुष्काल को निकट भविष्य में जानकर मुनि विशाखाचार्य (चन्द्र- दर्शनसार में व्यक्त ये मत नि सन्देह श्वेताम्बर गुप्त मौर्य) के नेतृत्व में मुनिसंघ को दक्षिणापथवर्ती सम्प्रदाय से सम्बद्ध हैं। उनके संस्थापक तो नहीं, पुनार नगर भेज दिया और स्वयं भाद्रपद देश में जाकर प्रबल पोषक कोई जिनचन्द्र नामक आचार्य हुए होंगे। समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग दिया। इधर दुष्काल पर चूकि आचार्य शान्ति और उनके शिष्य जिनचन्द्र की समाप्ति हो जाने पर विशाखाचार्य ससंघ वापस आ का अस्तित्व देवसेन के पूर्व नहीं मिलता अत: ये जिनचन्द्र 'गये। संघ में से रामिल्ल, स्थविर स्थूल और भद्राचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (सप्तम शती) होना चाहिये। सिन्धु देश की ओर चले गये थे। वहाँ दुर्भिक्ष पीड़ितों उन्होंने विशेषावश्यक भाष्य में उक्त मतों का भरपर के कारण लोग रात्रि में भोजन करते थे। फलतः समर्थन किया है। 21. दर्शनसार-11-14. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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