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________________ शती तक का सांस्कृतिक अथवा ऐतिहासिक कोई (1) चातुर्वर्ण्य व्यवस्था तथा वर्णसंकर का उल्लेख प्रमाण इसमें नहीं मिलता जिसके आधार पर मुख्तार भ० स० में अनेक स्थानों पर विकसित अवस्था में हुआ साहब के मत को समर्थन दिया जा सके। मुनि जिन- है। जैन संस्कृति में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था जिनसेन द्वारा विजय ने यह समय 11-12वीं शती निश्चित किया की गई जिसका परिपोषक रूप सोमदेव के ग्रन्थों में हैं। यह मत कहीं अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। मिलता है। वैसे ग्रन्थ के अन्त प्रमाणों के आधार पर इस समय को भी एक दो शताब्दी आगे किया जा सकता है। (2) अरिष्टों के वर्णन के प्रसंग में दुर्गाचार्य और एलाचार्य का उल्लेख है । दर्गाचार्य का ग्रन्थ रिष्ट समुच्चय का रचनाकाल 1032 ई. है। । कुछेक वर्षों पूर्व भारतीय ज्ञानपीठ से डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा सम्पादित एवं अनुवादित भद्रबाहु संहिता (3) चन्द्र, वरुण, रुद्र, इन्द्र, बलदेव, प्रद्युम्न, का प्रकाशन हआ था। उसकी प्रस्तावना में डॉ. शास्त्री सर्य, लक्ष्मी, भद्रकाली, इन्द्राणी. धन्वन्तरि, परशराम, ने एक स्थान पर भद्रबाहु को बराहमिहिर से प्रभावित रामचन्द्र' तुलसा, गड़, भूत, अर्हन्त, वरुण, रुद्र, सूर्य बताया । दूसरे स्थान पर उन्होंने लिखा कि कुछ विषयों शक्र, द्रोण, इन्द्र, अग्नि, वाय, समद्र, विश्वकर्मा, प्रजाका वर्णन बराहमिहिर से भी अधिक भद्रबाहु संहिता पति, पार्वती, रति आदि की प्रतिमाओं का वर्णन इस में मिलता है और यही नवीनता प्राचीनता की पोषिका ग्रन्थ में है। इन सभी के रूप 12वीं शती तक विकहै । फलतः भद्रबाहु बराहमिहिर के पूर्ववर्ती हो सकते सित हो चुके थे। हैं और अन्त में डॉ. शास्त्री ने इस कृति का समय 8-9 वीं शती भी बता दिया। इन तीन मतों में कौन (4) भद्रबाहु वचो यथा (ई. 64), यथावदनुसा मत उनका माना जाय, निश्चित नहीं किया जा पूर्वशः (91) आदि जैसे वाक्यों का प्रयोग मिलता सकता। लगता है, वे स्वयं इस समय की परिधि को है। इससे स्पष्ट है कि भ. सं. की रचना श्रतकेवली निश्चित नहीं कर पाये। भद्रबाह ने तो नहीं की। उनके अनुसार अन्य किसी भद्रबाह ने की हो अथवा उनके नाम पर किसी यद्वा . इस सन्दर्भ में मेरा अपना मत है कि भद्रबाहु तद्वा विद्रान ने। 11-12 वीं शती के होना चाहिए, जो न तो श्रतकेवली भद्रबाहु हैं, न कुन्द कुन्द के साक्षात गुरू और न ही (5) भौगोलिक और राजनीतिक वर्णन । नियुक्तिकार भद्रबाह । इनके अतिरिक्त अन्य कोई (6) वृहत्संहिता की अपेक्षा विषय वर्णन में चतुर्थ भद्रबाहु ही होना चाहिए, क्योंकि नियुक्तिकार नवीनता। भद्रबाहु की भाषा प्रायः शुद्ध और समीचीन जान पड़ती है जबकि प्रस्तुत ग्रन्थ इस दृष्टि से अस्पष्ट तथा इन सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु व्याकरण दोषो से परिपूर्ण है। संहिता की रचना 11-12 वीं शती से पूर्ववर्ती नहीं होना चाहिए । मूल ग्रन्थ प्राकृत में रहा हो यह भी भद्रबाहु संहिता की रचना 12-13 वीं शती की समीचीन नहीं जान पड़ता। बौद्ध साहित्य की श्रेणी में है । इस मत के समर्थन में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत इसे नहीं रखा जा सकता क्योंकि प्राकृत के रूप किये जा सकते हैं इतने अधिक भ० सं० में नहीं मिलते । अतः इस ग्रन्थ १०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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