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________________ उद्योतकर की 'लिंगपरामर्शोऽनुमानम्' परिभाषाओं जैन तार्किक अकलंकदेव का लिंगात्साध्याविनामें हमें केवल कारण का निर्देश मिलता है, स्वरूप का भावमिनिबोधक लक्षणात । लिगिधीरमानुनं तत्फल नहीं। उद्योतकर की एक अन्य परिभाषा 'लैंगिकी हानादिबुद्धयः ।।' यह अनुमानलक्षण उक्त दोषों से प्रतिपत्तिरनुमानम्' में स्वरूप का ही उल्लेख है, मुक्त है। इसमें अनुमान के साक्षात्कारण का और कारण का उसमें सूचन नहीं है। दिङ्नाग की 'लिंगा- उसके स्वरूप दोनों का प्रतिपादन है। सबसे महत्वदर्थदर्शनम्'38 अनुमान-परिभाषा में यद्यपि कारण और पूर्ण बात यह है कि इसमें उन्होंने 'तत्फलं हानादि स्वरूप दोनों की अभिव्यक्ति है परन्तु उसमें लिंग को बद्धयः' शब्दों द्वारा अनुमान के हान, उपादान और कारण के रूप में सूचित किया है, लिंग के ज्ञान को उपेक्षा बुद्धिरूप फल का भी निर्देश किया है। सभवतः नहीं। किन्तु तथ्य यह है कि अज्ञायमान धूमादि लिंग इन्हीं सब विशेषताओं के कारण सभी जैन ताकिकों ने अग्नि आदि के जनक नहीं हैं । अन्यथा जो पुरुष सोया अकलंक देव की इस प्रतिष्ठित और पूर्ण अनुमानहआ है या जिसने साध्य और साधन की व्याप्ति का परिभाषा को ही अपने तर्क ग्रन्थों में अपनाया है। ग्रहण नहीं किया है उसे भी पर्वत में धूम के सद्भाव मात्र विद्यानन्द जैसे तार्किक मूर्धन्य मनीषी ने तो अनुमान से अनुमान होजाना चाहिए । किन्तु ऐसा नहीं है । पर्वत विदुर्बुधाः' कहकर और आचार्यों द्वारा कथित बतला में अग्नि का अनुमान उसी पुरुष को होता है जिसने कर उसके. सर्वाधिक महत्व का भी ख्यापन किया है। पहले महानस (भोजनशाला) आदि में धूम-अग्नि को एक साथ अनेक बार देखा और उनकी व्याप्ति ग्रहण यथार्थ में अनुमान एक ऐसा प्रमाण है, जिसका की है, फिर पर्वत के समीप पहुंचकर धुम को देखा, प्रत्यक्ष के बाद सबसे अधिक व्यवहार किया जाता है। अग्नि और धूम की गृहीत व्याप्ति का स्मरण किया, अत: ऐसे महत्वपूर्ण प्रमाण पर भारतीय ताकिकों ने और फिर पर्वत में उनका अविनाभाव जाना, तब उस अधिक ऊहापोह किया है। जैन ताकिक भी उनसे पीछे पुरुष को 'पर्वत में अग्नि है' ऐसा अनुमान होता है, नहीं रहे। उन्होंने भी अपने तर्क ग्रन्थों में उस पर केवल लिंग के सद्भाव से ही नहीं। अतः दिङ्नाग के विस्तृत चिन्तन किया है। यहां हमने अनुमान के मात्र उक्त अनुमानलक्षण में 'लिंगात्' के स्थान में 'लिंग- स्वरूप पर यत्किचित विमर्श प्रस्तुत किया है। तर्क दर्शनात्' पद होने पर ही वह पूर्ण अनुमानलक्षण हो । ग्रन्थों में उसके भेदों. अवयवों और अंगों आदि पर सकता है। विस्तृत विचार किया गया है, जो उन ग्रन्थों से ज्ञातव्य है। 37. न्या. दी. 34. न्याय वा. १।११५, पृ. ४५; 35. न्याय वा. १३१३; 36. न्याय फले. पृ. ७ ; पृ. ६७; 38. तर्क मा. पृ. ७८,७६; 39. लधी. का. १२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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