SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साध्य के बिना न होने का जिसमें निश्चय है, ऐसे लिंग से जो लिंगी (साध्य अर्थ ) का ज्ञान होता है उसे अनुमान कहते हैं । हान, उपादान और उपेक्षा का ज्ञान होना उसका फल है । 19 इस अनुमानलक्षण से स्पष्ट है कि साध्य का गमक वही साधन अथवा लिंग हो सकता है जिसके अविनाभाव का निश्चय है । यदि उसमें अविनाभाव का निश्चय नहीं है तो वह साधन नहीं है। " भले ही उसमें तीन रूप और पाँच रूप भी विद्यमान हों। जैसे 'सश्यामः तस्पुत्रत्वात्, इतर पुत्रवत्', 'बज्र लोहतेख्यं पार्थिवत्वात् काष्ठवत्' इत्यादि हेतु तीन रूपों और पाँच रूपों से सम्पन्न होने पर भी अबिनाभाव के अभाव से सद्धे तु नहीं हैं, अपितु हेत्वाभास हैं और इसी से वे अपने साध्यों के गमक-अनुमापक नहीं हैं । इस सम्बन्ध में और विशेष विचार किया जा सकता है । विद्यानन्द ने अकलंकदेव का अनुमानलक्षण आरत किया है और विस्तारपूर्वक उसका समर्थन किया है । यथा साधनात्साध्य विज्ञानमनुमानं विदुर्बुधाः । साध्याभावासम्भवनियमलक्षणात शक्याभिप्रेताप्रसिद्धत्वलक्षणस्य तदनुमानं आचार्या विदुः साधनादेव साध्यस्यैव यद्विज्ञानं तात्पर्य यह कि जिसका साध्य के अभाव में न होने का नियम है ऐसे साधन से होनेवाला जो शक्य (अवाधित), अभिप्रेत (इष्ट) और अप्रसिद्ध साध्य का विज्ञान है उसे आचार्य (अकल देव) ने अनुमान कहा है। Jain Education International विद्यानन्द अनुमान के इस लक्षण का समर्थन करते हुए एक महत्वपूर्ण युक्ति उपस्थित करते हैं। वे कहते हैं कि अनुमान के आत्मलाभ के लिए उक्त प्रकार का साधन और उक्त प्रकार का साध्य आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । यदि उक्त प्रकार का साधन न हो तो केवल साध्य का ज्ञान अनुमान प्रतीत नहीं होता । इसी तरह उक्त प्रकार का साध्य न हो, तो केवल उक्त प्रकार का साधनज्ञान भी अनुमान ज्ञात नहीं होता । आशय यह है कि अनुमान के मुख्य दो उपादान हैंसाधनज्ञान और साध्यज्ञान । इस दोनों की समग्रता होने पर ही अनुमान सम्पन्न होता है । ६६ आचार्य माणिक्यनन्दि अकलंक के उक्त अनुमानलक्षण को सूत्र का रूप देते हैं और उसे स्पष्ट करने के लिए हेतु का भी लक्षण प्रस्तुत करते हैं। यथा सापनात्साध्य विज्ञानमनुमानम् । साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः 124 19. विद्यानन्द त श्लो. ११३०२००, पृ. २०६ 20. वही, १|१३|१२०, पृ. १६७; १।१३।१२०, पृ. १६७ ; 23. मणिक्यनन्दि, परीक्षामुख ३११४; 24. वही, ३।१५; १।२।७ पृ. ३० 26. धर्मभूषण न्याय दी. पृ. ६५, ६७ वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली; 28. उद्योतकर, न्याय वा. ११५, पृ. ४५ । हेमचन्द्राचार्य ने भी माणिक्यमन्दि की तरह अकलंक की ही अनुमान- परिभाषा अक्षरशः स्वीकार की है और उसे उन्हीं की भाँति सूत्र रूप प्रदान किया है। - न्यायदीपिकाकार धर्म भूषण ने भी अकलंक का न्यायविनिश्वयोक्त अनुमान-लक्षण प्रस्तुत करके उसका विशदीकरण किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने उद्योतकर द्वारा उपज्ञ तथा वाचस्पति आदि द्वारा समर्पित 'लिंग परामर्णोऽनुमानम्' इस अनुमानलक्षण की समीक्षा भी उपस्थित की है। उनका कहना है कि यदि लिगपरामर्श (लिगज्ञान- लिंगदर्शन) को अनुमान For Private & Personal Use Only 21, 22. वही, 25. प्रमा. मी. 27. वही, पृ. ६६ ; www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy