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________________ व्याप्ति-निश्चय से व्यवहित हैं । अतः लिंगदर्शन, व्याप्ति- लिग परामर्श को अनुमान मानना न्याययुक्त है । इस स्मरण और पक्षधर्मताज्ञान व्याप्ति-निश्चय से व्यवहित तरह उद्योतकर के मतानुसार लग परामर्श वह ज्ञान है होने से अनुमान के साक्षात् पूर्ववर्ती नहीं हैं। यद्यपि जिसके पश्चात् अनुमिति उत्पन्न होती है। किन्तु तथ्य पारम्पर्य से उन्हें भी अनुमान का जनक माना जा यह है कि लिंगदर्शन आदि व्याप्ति-निश्चय से व्यवहित सकता है। पर अनुमान का अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञान हैं। अतः व्याप्तिज्ञान ही अनुमान से अव्यवहित व्याप्ति निश्चय है, क्योंकि उसके अव्यवहित उत्तरकाल पूर्ववर्ती है। में नियम से अनुमान आत्मलाभ करता है । अतः व्याप्ति की परिभाषानिश्चय ही अनुमान का पूर्ववर्ती ज्ञान है। जैन तार्किक वादिराज भी यही लिखते हैं अनुमान शब्द की निरुक्ति के बाद अब देखना है कि उपलब्ध जैन तर्कग्रन्थों में अनुमान की परिभाषा 'अनु व्याप्तिनिर्णयस्य पश्चाद् भावि मानमनु मानम्।' क्या की गयी है ? स्वामी समन्तमद् ने आप्तमीमांसा में 'अनुमेयत्व' हेतु मे सर्वज्ञ की सिद्धि की है। आगे व्याप्ति-निर्णय के पश्चात् होनेवाले मान-प्रमाण अनेक स्थलों पर 'स्वरूपादिचतुष्टयात्', 'विशेषको अनुमान कहते हैं। वात्स्यायन' अनुमान शब्द की णत्वात' आदि अनेक हेतुओं को दिया है । और उनसे निरुक्ति इस प्रकार बतलाते हैं-'मितेन लिंगेन लिगिनो. अनेकान्तात्मक वस्तु की व्यवस्था तथा स्याद्वाद' की ऽर्थस्य पश्चान्मानमनुमानम्'-प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात स्थापना की है। इससे प्रतीत होता है कि समन्तभद्र के लिंग से लिंगी-अर्थ के-अनु-पश्चात् उत्पन्न होने वाले काल में जैन दर्शन में विवादग्रस्त एवं अप्रत्यक्ष पदार्थों ज्ञान को अनुमान कहते हैं । तात्पर्य यह कि लिंगज्ञान के की सिद्धि अनमान से की जाने लगी थी। जिन उपादानों पश्चात् जो लिंगी-साध्य का ज्ञान होता है वह अनु- से अनुमान निष्पन्न एवं सम्पूर्ण होता है उन उपादानों मान है। वे एक दूसरे स्थल पर और कहते हैं कि- का उल्लेख भी उनके द्वारा आप्तमीमांसा में बहुलतया 'स्मत्या लिंग दर्शनेन चाप्रत्यक्षोऽयोऽनमीयते । -लिंग- आ है। उदाहरणार्थ हेतू, साध्य, प्रतिज्ञा, सधर्मा, लिंगी सम्बन्ध स्मृति और लिंगदर्शन के द्वारा अप्रत्यक्ष अविनरभाव, सपक्ष, साधर्म्य, वैधर्म्य, दृष्टान्त जैसे अर्थ का अनुमान किया जाता है । इस प्रकार वात्स्यायन अनुमानोपकरणों का निर्देश इसमें किया गया है । पर का अभिप्राय 'अनु' शब्द से सम्बन्ध स्मरण और लिंग परिभाषा ग्रन्थ न होने से उनकी परिभाषाएँ इसमें नहीं दर्शन के पश्चात् अर्थ को ग्रहण करने का प्रतीत होता हैं । यही कारण है कि अनुमान की परिभाषा इसमें है। न्यायवार्तिककार उद्योतकर' का मत है कि 'यस्मा- उपलब्ध नहीं है । एक स्थल पर हेतु (नय) का लक्षण ल्लिग परामर्गादनन्तरं शेषार्थप्रतिपत्तिरिति । तस्मा- अवश्य निबद्ध है, जिसमें अन्यथानुपपत्ति विशिष्ट विलक्षण ल्लिग परामर्शोन्याय्य इति ।'--यतः लिंग परामर्श के हेतु को साध्य का प्रकाशक कहा है, केवल विलक्षण को अनन्तर शेषार्थ (अनुमेयार्थ) का ज्ञान होता है, अतः नहीं। अकलका और विद्यानन्द द्वारा प्रस्तुत उसके 2. न्यायविनिश्चय विवरण, द्वि. भा. २११; 3. न्यायभाष्य १११५३; 4. वही, ११११५; 5. न्या. वा. १।११५, पृ. ४५; 6. आप्त मी. का.५; 7 वही, का. १५ ; 8. वही, का. १७, १८; 9. वही, का. १६, १७, १०६ आदि; 10. आ. मी. का. १०६; 11. अष्ट श. अष्ठ स. पृ. २८६% 12. अष्ट स. पृ. २८६% Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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