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________________ लिए उष्ण-तेजोलब्धि का प्रयोग किया तब महावीर ने शीतल-तेजोलब्धि का प्रयोग कर उसे निष्फल बना दिया । गोशालक ने महावीर से पूछा- 'भंते ! यह तेजोलेश्या कैसे प्राप्त की जा सकती है ?' तब भगवान् ने उसे उपलब्ध करने की साधना बतलाई । उसकी चर्चा हम आगे करेंगे। वह तेजोलेश्या अप्रयोगकाल में संक्षिप्त और प्रयोगकाल में विपुल हो जाती है । " वह विपुल अवस्था में सूर्य-बिम्ब के समान दुर्दर्श होती है' - इतनी चकाचौंध पैदा करती है कि आदमी उसे खुली आँखों से देख नहीं सकता । यही तथ्य हठयोग में 'सूर्यकोटिसमपुत्रम्' इस वाक्य के द्वारा व्यक्त किया गया हैं । तेजोलब्धि का प्रयोग करनेवाला जब अपनी इस तेजस शक्ति को बाहर फेंकता है तब वह महाज्वाला के रूप में विकराल हो जाती है ।" तैजस शरीर की शक्ति के दो कार्य हैं- दाह (शाप या निग्रह) और अनुग्रह । तैजस शरीर दो प्रकार का होता है - स्वाभाविक और लब्धिहेतुक | स्वाभाविक तैजस शरीर 2. भगवई १५६६, वृत्ति पत्र ६६ : 3. 4. 5. 6. 7. 8. सबको प्राप्त होता है । तपो विशेष या विशेष प्रकार की साधना करनेवाले व्यक्ति को लब्धिहेतुक तेजस शरीर उपलब्ध होता है ।" जिसे लब्धिहेतुक तैजस शरीर प्राप्त होता है वह क्रुद्ध होने पर अपनी तेजस शक्ति को बाहर निकालता है और लक्ष्य को शाक-भाजी की तरह पका देता है । वह शक्ति अपना काम कर फिर लौट आती है, फिर उसी में समाहित हो जाती है। यदि वह शक्ति बहुत समय तक बाहर ठहरती है तो उस लक्ष्य को जलाकर भस्म कर डालती है/ 17 तेजस शरीर की विकसित अवस्था का नाम तेजोलेश्या या तेजोलब्धि है और उसके प्रयोग का नाम तैजस समुद्घात है । संक्षिप्त प्रयोगकाले, विपुला प्रयोगकाले । ठाणं ३३८६, वृत्ति पत्र १३६ : विपुलापि - विस्तीर्णापि सती अन्यथा आदित्यविम्बवत् दुर्दर्शः स्यादिति । ठाणं ३३८६, वृत्ति पत्र १३६ : तेजोलेश्या - तपोविभूतिजं तेजस्वित्वं, तैजसशरीर - परिणतिरूप महाज्वालाकल्पम् । तत्त्वार्थवार्तिक २४६, पृष्ठ १५४ : तेजसस्य सामर्थ्य कोपप्रसादापेक्षं दाहानुग्रहरूपम् । तत्वार्थ २४८ जो साधना के द्वारा तेजोलेश्या' को प्राप्त कर लेता है वह सहज आनन्द की अनुभूति में चला जाता है । इस अवस्था में विषय-वासना और आकांक्षा की सहज निवृत्ति हो जाती है । इसीलिए इस अवस्था को 'सुखासिका' (सुख में रहना) कहा जाता है ।" विशिष्ट ध्यानयोग की साधना करने वाला एक वर्ष में इतनी तेजो तत्वार्थवार्तिक २०४६, पृष्ठ १५३ : यतेरुप्रचारित्रस्यातिक्र ुद्धस्य जीवप्रदेशसंयुक्त बहिर्निष्क्रम्य दाह्य परिवृत्याबतिष्ठमानं निष्पावहरितपरि पूर्णां स्थालीमग्निरिव पचति पक्त्वा च निवर्तते, अथ चिरमवतिष्ठते अग्निसाद् दाह्योऽर्थो भवति । भगवई १४ । १३६, वृत्ति पत्र ६५७ : Jain Education International तेजोलेश्यां – सुखासिकां, तेजोलेश्या हि प्रशस्तलेश्योपलक्षणं सा च सुखासिकाहेतुरिति कारणे कार्योपचा रात् तेजोलेश्याशब्देन सुखासिका विवक्षितेति । ८८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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