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________________ थे । एक दिन दोनों मुख किसी बात पर झगड़ने लगे । परस्पर की बैर भावना से उनमें से एक मुख ने विष खा लिया। पेट तो एक ही था । परिणाम यह हुआ कि वह मर गया । जो एकोदर होकर विसंवादी मुख रखते हैं वे अपनी ही मृत्यु के निमंत्रयिता बनते हैं । परस्परोपग्रह- एकमात्र समाधान भावात्मक एकता में कभी-कभी ऐसा ही होता है कि दूसरे के अनिष्ट चिन्तन में अपना अहित हम कर बैठते है । अपने सम्पूर्ण अंग से प्र ेम करने वाला अंग के किसी अंश के दूषण को दूर करने में अपना सम्पूर्ण यत्न लगा देगा । यदि पाँव में काँटा चुभ गया है और सुई पास नहीं है तो वह अपने नखों से भी उसे निकाल बाहर करेगा । यही अंग धर्म है । चतुःसंघ में। जैसा कि आज सुनने में आ रहा है, यदि आचार शैथिल्य प्रवेश कर गया है तो अंगांगी भाव से उसका निराकरण करना अधिक श्रेष्ट है । एक दूसरे पर दोषारोपण न करके 'परस्परोपग्रह' से अपने आपको थिय को दूर कर सकें तो वह अच्छा रहेगा। कोई भी विनाशक तत्व सूचीमुख होकर प्रवेश करता है और जब निकलता है तो गोली के समान निकलने के मार्ग को विस्तीर्ण कर देता है । शिथिलाचार के विषय में भी ऐसा ही कहा जा सकता है । लोकैषणा का अनुचित रूप आजकल के छपे धार्मिक ग्रन्थों में अर्थ सहायता करनेवाले धनिक के फोटो छापे जाते है । जिनकी प्रेरणा से ग्रन्थ छपते है उन श्रमणों के भी चित्र उनमें होते हैं । जो लोग रात दिन हजारों लाखों रुपयों से खेलते हैं, वे धार्मिक ग्रन्थों के पृष्ठों से अन्यत्र अपना अर्थ-व्यय करते समय कभी 'फोटो' नहीं छपवाते किन्तु धर्मध्वज होने की तृष्णा में लोकैषणा साथ मिली होती । केवल धर्म भाव से 'गुप्तदान" आजकल नहीं किया Jain Education International जाता । भले ही अधर्मं करते समय व्यय किये गये लाखों रुपयों पर उनकी 'फोटो' न लगे, किन्तु धर्म शरीर पर उनकी मुद्रा (द्रव्य) अमुद्रित कैसे रहे ? अपने मान को करते समय धर्म ग्रन्थों की मर्यादा को भुलानेवाले स्वयं अपने कृत्य पर सोचें । इधर कुछ समय से मुनि मूर्तियाँ बनाई जा रही हैं। पहले जिनवाणी के साथ फोटो छपते थे अब 'जिन' भगवान के साथ मूर्ति भी रखी जाया करेगी । धीरे-धीरे प्रगति की जा रही है । एक वे त्यागी थे, जिन्होंने जिनवाणी को ग्रन्थ रचना का रूप देकर भी अपने आपको पर्दे में रखा, परिचय तक नहीं लिखा और धर्म ध्यान करते हुए जीवन को सार्थक किया । श्रावकों ने भावना से अभिभूत होकर उनकी 'चरण पादुका' विराजमान कर दी । उन चरण पादुकाओं का इतिहास भी विशेष विस्तृत नहीं । पंचम काल के श्रुतकेवली भद्रबाहु आचार्य और ज्ञान ज्योति से भासमान कुन्दकुन्द आचार्य जैसों की समाधि मरणोत्तर प्रतिष्ठा के रूप में 'पद पादुकाएँ' मिलती हैं । चन्द्रगिरि पहाड़ी का शिला लेख है 'जिनशासना यावनवरत 'भद्रबाहु चन्द्र गुप्त' मुनिपतिचरण मुद्राकित विशालशी.... 162 । कुन्दाद्रि आदि क्षेत्रों में भी आचार्य कुन्दकुन्द की चरण पादूकाएं ही मिलती हैं, मूर्तियाँ नहीं । आज तो पंचम काल अपनी सम्पूर्ण ग्रभविष्णुता के साथ ताल देकर नाच रहा है । शरीर को भी परिग्रह माननेवाले मुनि प्रतिमाओं के लिए प्रेरणा दे रहे हैं । किन्तु नातस्त्वमसि नो महान् " कहने का साहस रखनेवाले परीक्षा प्रधानियों को आगम विरुद्धता से उत्कीर्ण ये प्रस्तर क्या मान्य होंगे ? समय की माँग समय की माँग तो यह है कि सहसूत्रातिसहस्त्र मूर्ति से सम्पन्न जैन-जगत नवीन मूर्ति निर्माण से पूर्व अपने मन्दिरों, चैत्यालयों में प्रतिष्ठापित जिन बिम्बों की पूजा प्रक्षाल की व्यवस्था करे । ग्रन्थों और मूर्तियों ८५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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