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________________ त्य १२ गोष्टम ८ सुत ५ द्वयेकादशी ११ मंद गोलग्नाशा हि गुरुज्ञ चंड महसा, शोरेश्च दीक्षा विद्यौ ।। रविस्तृ तीयो दशमः शशांको जीवेन्दु बावति मनाश ८ वज्ये केंद्राष्ट वौँ भृगुज त्रि शत्रु संस्थः शनि प्रव्रजने मतो ऽन्ये ।। [१९५] हीक्षा-- शुक्रांगारक मंदानां नाभीष्टा सप्तमः शशी । तमः के चतु दीक्षायां प्रतिष्ठा वधुभा-धुभौ ॥ कलह १, भय २, जीव नाशन ३, धनहानि ४, विपत्ति ५, नृप विपत्ति ६, भीतिकरः प्रवज्यायां नेष्टो भौमादियुतः क्षपानाथः ।। कृवचक्रे स्थिति तिर्यक प्रतिष्ठा दीक्षणादिकं । उर्ध्व स्थिते ध्वजारोप खात प्रमुख माचरेत ॥ થજા ને કંઠધજા પુરૂષની દૂરી પ્રમાણે કરવી. __ गृहप्रवेश ममें भी यही कुभ चक्र है। सूर्य नक्षत्र से चंद्र नक्षत्र तक गिनकर नक्षत्र स्थापन क्रमसे करना । વિભાગ પહેલી
SR No.011638
Book TitleYatindra Muhurt Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year1985
Total Pages593
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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