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________________ ६७ योगशास्त्र. मुनिए कडं के, "सारी रीते उपशम, विवेक अने संवर अंगीकार कर" एम कही ते चारण मुनि पदीनी पेठे आकाशमा उडी गया. पठी ते पदोने मंत्रनी पेठे विचारवाथी चिलातीपुत्रने तेनो जावार्थ एम समजावा लाग्यो के, डाह्या माणसें क्रोधादिक कषायोनो उपशम करवो जोश्य, अने हुँ तो, सर्पोथी जेम चंदनवृदा, तेम तेजनाथी घेराएलो ढुं. माटे श्राजेज तेउँने मारा महारोगोनी पेठे क्षमा, कोमलता, सरलता अने संतोषरूपी औषधिउँथी दूर करीश. वली धन, धान्य, तथा कांचन आदिकना त्यागना लक्षणरूप, तथा ज्ञानरूपी वृदना बीज . सरखा एक विवेकनेज हुं अंगीकार करीश. माटे पाप संपदानी धजासरखा आ हाथमा रहेला सुषुमाना मस्तकने तथा तलवारने हुँ बगेडी दलं. अने संवर एटले इंजिय अने मनना विषयोथी पाबा हन्तुं ते, श्रने संयमरूपी लक्ष्मीना मुकुट सरखा ते विचारने पण मारे ग्रहण करवो बे. एवी रीतें पदोना अर्थाने विचारतो, तथा रोकेल ने सघली इंडियो जेणे, एवो ते चिलातिपुत्र समाधिमा रह्यो. पनी रुधिरनी श्रेणियी लिप्त थयेला तेना शरीरने, घुणो जेम काष्टने, तेम कीडीए सेंकडो बिडोवालुं करी नाख्यु. एवी रीतना कीडीउना उपसर्गथी पण स्तंजनी पेठे निश्चल रही, अढी दिवसमां तेणें देवलोक मेलव्यो. वली पण योगनीज स्तुति करे जे. तस्या जननिरेवास्तु नृपशोर्मोघजन्मनः॥ अविचको यो योग इत्यदशलाकया ॥१४॥ अर्थः-जे माणसना कान “योग" एवा अरोरूपी शलाकाथी (कान विधवाना हथियारथी) विधाएलो नश्री, एवा फोकट जन्मवाला पशु सरखा मनुष्यनो जन्म न थवो, तेज श्रेष्ठ बे. अर्थात् एवा माणसनो विडंबनारूप (मुःख पीडा क्लेशने संतापमय ) जन्म कंश कामनो नथी. वली पण पूर्वार्धधी (पेहेलां बे पदोथी ) योगनी स्तुति करीने, उतरार्धथी (नेवां वे पदोथी ) तेनुं स्वरूप कहे . चतुर्वर्गेऽग्रणीर्मोदे योगस्तस्य च कारणं ॥ ज्ञानश्रधानचारित्र रूपं रत्नत्रयं च सः॥२५॥
SR No.011619
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1899
Total Pages493
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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