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________________ एकादशप्रकाश. ४६१ लांज होय नहीं, तेम वधवानां खजाववाला पण तेमनां नख श्रने रोम वृद्धि पामतां नथी. तथा, शमयंति तदन्यणे, रजांसि गंधजलदृष्टिनिर्देवाः ॥ निकुसुमष्टिनि, रशेषतः सुरनयंति नुवं ॥३॥ अर्थः- वली तेनी पासें देवो सुगंधि जलनी वृष्टिधी धूलने शांत करेबे, तथा प्रफुद्धित एवां पुष्पोनी वृष्टिथी पृथ्वीने पण सुगंधित करे . तथा, नत्रयीपवित्रा, विनोरुपरि भक्तितस्त्रिदशराजैः॥ गंगाश्रोतस्त्रितयी, व धार्यते मंडलीकृत्य ॥४०॥ अर्थः- वली प्रजुपर इंझो जक्तिथी पवित्र एवांत्रण उत्रो, गंगा नदीना त्रण करा सरखां मंडलरूप करीने धरे बे. तथा, अयमकएव नःप्रनु, रित्याख्यातुं बिडोजसोन्नमितः॥ अंगुलिदंडश्वोच्चै, श्चकास्ति रत्नध्वजस्तत्य ॥४१॥ अर्थः- आज एक श्रापणा प्रनु , एवं कहेवामाटे इंसें जाणे अंगुलिदंड उंचो कयों होय नहीं, तेम प्रजुनो रत्नध्वज शोने जे. तथा, अस्य शरदिदीधिति, चारूणि च चामराणि धूयंते॥ वदनारविंदसंपा, ति राजहंसभ्रमं दधति ॥४॥ अर्थः- वली मुखरूपी कमलपर पतन करता एवा राजहंसना ज्रमने धारण करतां, अने शरद् ऋतुना चंनी कांतिसरखां मनोहर एवां चामरो प्रजुपर वीफाय जे. तथा, प्राकारास्त्रयनच्चै, विनांति समवसरणस्थितस्यास्य॥ कृतविग्रहाणि सम्यक, चारित्रज्ञानदर्शनानीव ॥४३॥ थर्थः- शरीरधारी एवां सम्यग्रज्ञान, दर्शन अने चारित्रोज जाणे होय नही, एवा समवसरणमा रहेला था प्रजुना त्रण गढो उंचे प्रकारें शोले . तथा, चतुराशावर्त्तिजनान्, युगपदिवानुग्रहीतुकामस्य । चत्वारि नवंति मुखा, न्यंगानि च धर्ममुपदिशतः॥४४॥ अर्थः- चारे दिशाउँमा रहेला मनुष्योने एकी वखतेज जाणे अनुग्र
SR No.011619
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1899
Total Pages493
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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