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________________ ४श्न योगशास्त्र. अर्थः- तेथी विषयोथी विरक्त बुद्धिवाला थश्ने, तथा इंजियोनी साये मनने पण खेंचीने धर्मध्यान माटे तेने निश्चल कर. नानिहृदयनासाग्र, नालव्रतालुदृष्टयः॥ मुखं कौँ शिरश्चेति, ध्यानस्थानान्यकीर्तयन् ॥७॥ अर्थः- नानि, हृदय, नासिकाना अपनागो, कपाल, वृकुटी, तालु, आंख, मुख, कान, अने मस्तक ए ध्याननी धारणानां स्थानको डे. हवे धारणानुं फल कहे . एषामेकत्र कुत्रापि, स्थाने स्थापयतो मनः॥ उत्पद्यते स्वसंवित्ते, बंदवः प्रत्ययाः किल ॥७॥ अर्थः- उपर कहेला कोइ पण स्थानकें मनने स्थिर करवाथी खरेखर आत्मज्ञाननी घणी प्रतीतियो उत्पन्न थाय . एवी रीतें परमाईत श्री कुमारपाल राजायें सेवायेल श्राचार्य महाराज श्री हेमचंअजीये रचेला अध्यात्मोपनिषद् नामना, तथा थयेल ने पट्टबंध जेने, एवा योगशास्त्रमा पोतेज करेलुं बहा प्रकाशनुं विवरण संपूर्ण थयु. श्रीरस्तु. श्रीजिनायनमः ॥ सप्तमः प्रकाशः प्रारज्यते ॥ हवे ध्यान धरनारनो क्रम कहे . ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं, ध्याता ध्येयं तथा फलं ॥ सिध्यंति नहि सामग्री, विना कार्याणि कर्दिचित्॥१॥ अर्थः- ध्यान धरवाने श्वता माणसें ध्याता ध्येय, अने फलने जापद् जोश्य, केमके सामग्री विना कार्यों को पण वखते सिद्ध थतां नथी. हवे उ श्लोकोयें करीने ध्यान धरनार खरूप कहे , अमुंचन प्राणनाशेऽपि, संयमैकधुरीणतां ॥ परमप्यात्मवत्पश्यन् , स्वस्वरूपापरिच्युतः॥२॥
SR No.011619
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1899
Total Pages493
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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