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________________ आचारास्त्रे टीकाघनघातिकर्मरूप रिपुगणक्षपणानन्तरं वीरैरिति । लब्धातुलकेवला लोकलक्ष्म्या विराजन्त इति वीराः । यथा - राजानश्चतुरङ्गसैन्यसमाहृतं स्वकीयमरिवर्ग निहत्य लव्धराज्यविजयलक्ष्म्या विराजमाना वीरा निगद्यन्ते । यद्वा - वि= विशेषेण ईरयन्ति = रागाद्यन्तरङ्गमहासुभटान् निवारयितुमनन्ततपोवीर्यं व्यापारयन्तीति वीराः । यद्वा - विशेषेण ईरयन्ति = शिवगतिं गमयन्ति भव्यजीवानिति वीराः । यद्वा - विशेपेण ईरयन्ति = ज्ञानाचारादीन् प्रति प्रेरयन्ति भव्यजीवानिति वीराः, तीर्थङ्करा गणधरा, तैर्वीरैः, एतद् = अग्निकायस्वरूपं, यद्वा-अग्निशस्त्रम् अशस्त्रं चेति द्वयं दृष्टं-ज्ञानदृष्टय विलोकितम्, अर्थतस्तीर्थङ्करैः, गणधरैस्तु भगवद्वचनैरिति विशेषः । ५५६ टीकार्थ — घातिया कर्मरूपी शत्रुओं के समूह को नाश करने के अनन्तर अनुपम केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त होती है । उस लक्ष्मी से जो विराजमान है उन्हें वीर कहते है । जैसे कोई राजा, चतुरंग सेना से युक्त शत्रुओं को हराकर प्राप्त राज्य और विजय की लक्ष्मी से सुशोभित हो कर 'वीर' कहलाते हैं । अथवा राग-द्वेष आदि आन्तरिक महायोद्धाओं को रोकने के लिए अनन्त तपोवीर्य का प्रयोग करने वाले 'वीर' कहलाते है | अथवा भव्य जीवों को विशेषरूप से मुक्ति की ओर प्रेरित करने वाले 'वीर' कहलाते है | अथवा विशेषरूप से ज्ञानाचार आदि की ओर भव्य जीवों को प्रेरित करने वाले 'वीर' कहलाते हैं । ऐसे वीर तीर्थंकर गणधर आदि है । उन वीरों ने अग्नि के स्वरूप को अथवा अग्निशस्त्र और अशस्त्र को ज्ञानदृष्टि से देखा है । अर्थ से तीर्थंकरों ने और उन के वचनों के अनुसार गणधरों ने देखा है । ટીકા—ઘાતિ—કર્મરૂપી શત્રુઓના સમૂહના નાશ કર્યોના અનન્તર અનુપમ કેવલજ્ઞાન રૂપી લક્ષ્મી પ્રાપ્ત થાય છે. તે લક્ષ્મીથી જે વિરાજમાન છે તેને વીર કહે છે. જેમ કેાઈ રાજા, ચતુરંગ સેનાથી યુક્ત (ચાર પ્રકારની સેના સહિત) શત્રુએને હરાવીને પ્રાપ્ત કરેલુ રાજ્ય અને વિજયરૂપ લક્ષ્મીથી સુશેાભિત ખની ‘વીર’ डेवाथ छे, अथवा-राग-द्वेष याहि यान्तरि महायोद्धाओने रोडवावाजाने 'वीर' ४द्धे छे. अथवा लव्य लवाने विशेषरूपथी भुम्तिनी तर प्रेरित पुरवावाजा 'वीर' કહેવાય છે. અથવા વિશેષરૂપથી જ્ઞાનાચાર આદિની તરફ ભવ્ય જીવાને પ્રેરિત अश्वावाला 'वीर' हेवाय छे. मेवा वीर तीर्थ १२ गने गयुधर याहि छे, ते वी અગ્નિના સ્વરૂપને અથવા અગ્નિશસ્ત્ર અને અશસ્રને જ્ઞાનદૃષ્ટિથી જેયાં છે. અર્થ થી તીર્થંકરાએ જોયાં છે. અને તેમનાં વચને અનુસાર ગણુધરીએ તૈયાં છે,
SR No.011616
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1958
Total Pages801
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size35 MB
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