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________________ ५३२ आचारागसूत्रे मूलम्कप्पइ णे कप्पइ णे पाउं अदुवा विभूसाए ॥ सू० १३ ॥ छायाकल्पतेऽस्माकं कल्पतेऽस्माकं पातुं, अथवा विभूषायै ॥ मू० १३ ॥ टीका'कल्पतेऽस्माक'-मिति । न वयं स्वेच्छयोदकमुपमर्दयामः किन्त्वस्माकमागमे निर्जीवत्वेन प्रविबोधितत्वादनिपिद्धत्वाच पातुं कल्पते । 'कल्पतेऽस्माकम् ' इत्यस्य द्विरुचारणेन पुनःपुनरनेकप्रयोजनवशाद् बहुविध उपभोगोऽस्माकं कल्पते, इति बोध्यते । तथाहि-- भस्मस्नायिनो वदन्ति-अस्माकं पातुमेव कल्पने न तु स्नातुमिति । शाक्यादयस्त्वेवं जल्पन्ति-स्नान-पानादि सर्व कल्पते जलेनेति । मूलार्थ-हमें कल्पता है, हमें कल्पता है, (जल) पीने और विभूषा करने–हाथ पैर आदि धोने, नहाने के लिए ॥ सू. १३ ॥ टीकार्थ-हम स्वेच्छा से जल की विराधना नहीं करते, वरन हमारे आगम में जल को अचित्त बतलाया है और पीने का निषेध नहीं किया है, अतः हमें पीना कल्पता है । 'हमें कल्पता है यह दो बार कहने से यह सूचित किया गया है कि-प्रयोजन के वश नाना प्रकार का उपभोग करना हमें कल्पता है । जैसे ___भस्म से स्नानकरनेवाले कहते है-हमें पीना हो कल्पता है, स्नानकरना नहीं कल्पता । शाक्य आदि का कहना है कि हमें पीना और स्नानकरना-सभी कुछ कल्पता है! भूसाथ:-मभने ४८ छ, मभने ४८ छे, (ara) पीवान भने विभूषाहाय ५ माघौवा, नहावा भाटे (सू. १३) ટીકાથ—અમે સ્વેચ્છાથી જલની વિરાધના કરતા નથી. પરંતુ અમારા આગમમાં જવને અચિત્ત બતાવ્યું છે, અને પીવાને નિષેધ કર્યો નથી. તેથી અમારે પીવું કપે છે. “અમારે કપે છે. આ બે વાર કહેવાથી એ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે –પ્રજનવશ નાના પ્રકારને ઉપભેગ કરવાનુ અમને કપે છે. જેમ કે ભસ્મથી સ્નાન કરવાવાળા કહે છે–અમારે પીવું કપે છે, સ્નાન કરવું ४६५तुं नथी. શાકય આદિનું કહેવું છે કે-અમારે પીવું અને ખાન, સર્વે કાંઈ કલ્પ છે.
SR No.011616
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1958
Total Pages801
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size35 MB
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