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________________ यह शाल्मलीद्वीप चार लाख योजन परिमाणवाला है। उस शाल्मलीद्वीपको चारों तरफसे घरे हुए सुरोद नामका समुद्र है, यह समुद्र भी चार लाख योजन परिमाणवाला है । इससे आगे कुशद्वीप है । यह कुशद्वीप आठ लाख योजन परिमाणवाला है । इस कुशद्वीप को चारों तरफसे घेरे हुए घृतोद नामका समुद्र है । यह समुद्र भी आठ लाख योजन परिमाणवाला है। इससे आगे क्रौञ्चद्वीप है। यह क्रौञ्चद्वीप सोलह लाख योजन परिमाणवाला है। इस क्रौञ्चद्वीपको चारों तरफसे घेरे हुए क्षीरोद नामका समुद्र है, यह भी सोलह लाख योजन परिमाणवाला है। इससे आगे शाकद्वीप है, यह शाकद्वीप बत्तीस लाख योजन परिमाणवाला है । इस शाकद्वीपको चारों तरफसे घेरे हुए दधिमण्डोद नामका समुद्र है । यह समुद्र भी बत्तीस लाख योजन परिमाणवाला है, उसके आगे पुष्करद्वीप है । यह पुष्करद्वीप चौंसठ लाख योजन परिमाणवाला है । इस पुष्करद्वीपके चारों ओर शुद्धोद नामका समुद्र है। यह समुद्र भी चौंसठ लाख योजन परिमाणवाला है, ये सात द्वीप और सात समुद्र मिलकर दो करोड़ चौवन लाख योजन परिमाणवाले हैं। सात द्वीप तथा सात समुद्र मिलकर जितने योजन परिमाणवाले हैं । उतने ही योजन शुद्धोद नामक समुद्रसे आगे भूमिका परिमाण है । इस भूमिसे आगे आठ करोड़ उन्तालीस लाख योजन परिमाणवाली सुवर्णकी भूमि है। इस भूमिको छोड़कर आगे लोकालोक-पर्वतके मध्य देशको शास्त्रमें मानसोत्तर मूर्द्धस्थान कहते हैं । इस मध्यदशमें सूर्यभगवान् रात-दिन सर्वदा भ्रमण करते हैं। मानसोत्तर परिमण्डलका परिमाण साढ़े नौ करोड़ योजन शास्त्रमें कहा है । इतने योजन परिमाण रातदिन सूर्य भगवान् चलते हैं । रात-दिनमें जितने योजन परिमाण सूर्यभगवान् चलते हैं, उतने योजन को बत्तीस गुणा करनेसे जितने योजनकी संख्या होती है, उतने योजनपर्यन्त का देश सूर्य भगवान् के किरणोंसे व्याप्त है । इस लोकको बुद्धिमान् भूलोक कहते हैं।' પૃથ્વી પોતાની ધરી ઉપર તેમ જ સૂર્યની આસપાસ ફરે છે અને સૂર્ય સ્થિર છે” એવું પાશ્ચાત્ય વિદ્વાનોનું મન્તવ્ય છે તે પણ વિચારણીય છે. સૂર્યપ્રજ્ઞપ્તિ, બૃહતસંગ્રહણી, મંડલપ્રકરણ, લોકપ્રકાશ વિગેરે સંખ્યાબંધ જૈનગ્રન્થમાં સૂર્યને સંચાર અને પૃથ્વીના ઘેર્યનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. પરંતુ ફર્વેદમાં પણ તે પ્રમાણે જ વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. જે નીચેના વાક્યથી સમજાશે– " सूर्यो हि प्रतिदिनं......एकोनषष्ट्यधिकपंचसहस्र (५०५९) योजनानि मेरुं प्रादक्षिण्यन परिभ्राम्यति । (ऋ० अ० २, अ० १, व० ५.) “सूर्य २॥ ( प्रतिमुहत ) पांय ९१२ सासा (५०५८ ) योन મેરૂની આજુબાજુ પ્રદક્ષિણાના કમવડે પરિભ્રમણ કરે છે.”
SR No.011562
Book TitleLaghu Kshetra Samasa athwa Jain Bhugol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri, Pratapvijay, Dharmvijay
PublisherMuktikamal Jain Mohan Mala
Publication Year1931
Total Pages669
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size22 MB
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