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________________ [१६] आचारांग - मूळ तथा भाषान्तर. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाएजातीमरणमायणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वणस्सतिसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा वणस्सइसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा वणस्सइसत्थं समारंभमाणे समणुजाणति; तं से अहियाए, तं से अबोहिए । (४२) से त्तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्टाए सोच्चा भगवओ, अणगाराणं वा अंतिए; इह मेगेसिं णायं भवति - एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु परए । इचत्थं गढ़िए लोए; जर्मिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणरसइकम्मसमारंभेणं बणस्सइसत्थं समारंभमाणे अन्ने अणेरूपाणे विहिंसति । (४३) से बेमि, इमपि जाइधम्मयं, एयंपिं २ जाइधम्मय; इमंपि - १ इदं ( मनुष्य शरीरं ) २ एतत् (वनस्पति शरीरं ) अहं भगवाने शुद्धरीते समजान्युं छे के आ जींदगीनी कीर्त्ति, मान, तथा, खानपानने अर्थे, जन्म जरामरणथी छूटवामाटे, तथा दुःखो टाळवा माटे जीवो, जाते वनस्पतिनी हिंसा करे छे, वीजा पासे करावे छे, अने तेनां करनारने रुडुं माने छे. पण ते तेमने अहित कर्त्ता तथा अज्ञान वधारनार थवानुं. (४२) एवं जाणीने केलाएक सत्पुरूषो भगवान् अथवा तेमना साधुओ पासे - थी स्वरुप सांभळीने आदरवा लायक वस्तु आदरे छे. तेवा पुरुषों एवं समजें छे के वनस्पतिनी हिंसा ए खररेवर कर्म बंधनी हेतु छे, मोहनी हेतु छे, मरणनी हेतु छे, अन नरकनी हेतु छे. तेम छतां लोक, कायादिकना अर्थ विचार शून्य वनेला छे, जे माटे आ वनस्पतिकायनो विविध शस्त्रोवडे समारंभ करता थका वीजा अनेक माणओनी हिंसा करता रहे. छे. (४३) 1 हूं (जेम सांभल्युं छे तेम) कहुं के वनस्पति सजीव छे केमके जेम आ आपणुं शरीर पेदा थती चीज छे तेम ए वनस्पति पण पेदा थती चीज छे; जेम
SR No.011502
Book TitleAng 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavjibhai Devraj
PublisherRavjibhai Devraj
Publication Year1906
Total Pages435
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & Conduct
File Size17 MB
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