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________________ [३०२] आचारांग-मूळ तथा भाषान्तर. ज्जिय ततो संजयामेव वत्थं आयावेज वा पयावेज वा । (८३०) एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुगीए वा सामग्गियं । (८३१) ! 6 (द्वितीय उद्देशः) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहेसणिज्जाइं१ वत्थाई जाएज्जा अहापरिग्गहाई वत्थाई धारेज्जा, णो धोएज्जा, णो रइज्जा, णो धोयरत्ता इं वत्थाई धारेज्जा, अपलि उंचमाणे २ गामंतरेसु ओमचेलिए । एयं खलु वत्थधारिरस सामग्गिय । (८३२] १ अपरिकर्माणि २ अगोपयन् ३ एतच्च सूत्रं जिनकल्पिकोद्देशेन द्रष्टव्य, वस्त्रधारित्व विशेषणात् गच्छांतर्गतेपि चाविरुद्धं । जोइ तपाशी पुंजी प्रमार्जी यर न पूर्वक ते वस्त्रो सूकववा. [८३०] एज खरेखर मुनि अने आर्याओना आचारनी संपूर्णता छे. [८३१] बीजो उद्देश (वस्त्र संवधी वधु आज्ञाओ) मुनि अथवा आर्याए वस्त्रोने सुधारवां करवां नहि, किंतु जेवा मळे सेवांज, पहेरवां तथा धोवां के रंगवां पण नहि, अने जो धोएलां के रंगेला शेय तो पहेरयां नहि. अने ग्रामांतरे जतां पोतानां वस्त्रो संताडवां नहि, ए वस्त्राधार मुनिनो आचार ले. [८३२] आ सूत्र जिनकल्पि मुनिना माटे छे अने वस्त्रधार एवा विशेषणथी स्थविर कल्पिना माटे पण घटी शके छे. (वृत्ति.)
SR No.011502
Book TitleAng 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavjibhai Devraj
PublisherRavjibhai Devraj
Publication Year1906
Total Pages435
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & Conduct
File Size17 MB
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