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________________ [८२] आचारांग-मूळ तथा भापान्तर [पंचम उद्देश.] __ से बेमि-तं जहा, अवि हरए १ परिपुन्ने चिति समंसि भोमे उवसंतरए सारक्खमाणे । सेर चिति सोयमझगए, से पास, सव्वतो गुत्ते । पार्स, लोएं महेसिणो, जे य पन्नाणमंतो पबुद्धा आरंभोवथार, सम्म मेयंति पासह, कालरस कंखाए परिव्वयति त्ति बेमि । (३१२) वितिगिच्छसमावष्णेणं अप्पाणेणं णो लभति समाधि । (३१३) सिया वेगे अणुगच्छति । असिया वेगे अणुगच्छति । अणुगच्छमाणेहिं अणणुगच्छमाणो कहं ण णिविजेज्जा । तमेव सच्चं णीसंके, जं जिणेहिं पवेइयं । (३१४) १ हृदः २ आचार्यः ३ सिता बध गृहस्था इत्यर्थः पांचमो उद्देश. (मुनिए सदाचारयी वर्तवू तथा तेना माटे जलाशयनो दृष्टांत.) जेम कोइ एक सपाट प्रदेशमा एक निर्मळ जळया भरपूर थएलो अने मुरक्षित जळाशय हमेशां स्वच्छ बन्यो रहे छे तेम केटलाएक पवित्र आचार्यो ज्ञान जळथी भरपूर बनी निर्दोष क्षेत्रमा रहीने जीवोनुं संरक्षण करता धका ज्ञानजळना प्रवाहने चलावनार थइने गुरक्षित वन्या रहेछे. एटलुंज नहि पण केटलाएक मुनिओ पण विवेकदंत बनी प्रतिवोध पामीने आरंभथी निवृत यइ समाधि मरणनी इच्छा राखता थका ते जळाशयना जेवाज वर्ते छे. [३१२] "फळ थशे के नाहि थाय " एवो संशय राख्याधी जीवने समाधिः नयी मळती. [६१३] वळी आचार्यना वाक्योने वखते गृहस्थो पण समजी शके छ, अथवा मुनिओ समजी शके छे, एवे वखते जे मुनि पोताना कर्मोदयथी ते समजी शक्तो नहि होय तेने मनमां खेद उप्तन्न थया विना रहेतो नथी. (आवा प्रसंगे गुरुए तेवा शिष्यने कहे के हे शिष्य, “जे जिनोए भाष्युं छे तेज निःशकपणे सत्य छ,” (एवी तारे श्रद्धा राखवी.) [३१४] १स्वस्थता.
SR No.011502
Book TitleAng 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavjibhai Devraj
PublisherRavjibhai Devraj
Publication Year1906
Total Pages435
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & Conduct
File Size17 MB
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