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________________ अध्ययन पांच. (७७) लु दुल्लहं । (२९४) जहेत्य कुसलेहिं परिन्नाविवेगे भासिते ११ चुते हु बाले गब्भाइसु रज्जति । (२९५) अस्सिं २ चेयं पव्वुञ्चति । रूवंसि वा छणंसि४ वा । (२९६) से हु एगे संविद्धपहे मुणी अण्णहा लोग-सुवेहमाणे । (२९७ इतिकम्मं परिन्नाय सव्वसो, से ण हिंसति संजमति णो पगभति । उवेहमाणो पत्तेयं सायं, । (२९८) __ १ स तथैव श्रद्धेय इतिशेषः २ जिनमत ३ रूपादौ गृद्धः ४ हिंसादी प्रवर्तते इत्यर्थः जरुर छ. युद्धने योग्य आवं शरीर फरी मळवू घj मुस्केल छे. [२९४] तीर्थकर देवे विचित्र अध्यवसायोनी जे रीते समन आपीछे ते तेज रीते स्वीकारवी, माटे धर्य पामीने तेथी भ्रष्ट थएलो वाळ जीव गर्भादिक दुःख पामे छे. [२९५] ___ आ जिनशासनमांज एवं कहेवाय छे के जे विषयोमां गृद्ध। थाय छे ते हिंसामा प्रवर्ते छे. [२९३] अने मुनि तो खरेखरो तेज जाणवो के जे लोकोने मोक्ष मार्गमा विमुख प्रवृत्ति करतो देवी तेमने दुःखी विचारतो थको मोल मार्गमां रुडी न चाल्यो जाय. [२०.७] माटे कर्म स्वरुप जाणीने शुद्ध मुनिओ " दरेक जीवर्नु सुख अलग अलग छे" एम विचारी कोइ जीवनी हिंसा नथी करता किंतु संयममां वर्त्तता रही घाटाइयी दूर रहे छे. [२८८] १ आसक्त. - - --
SR No.011502
Book TitleAng 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavjibhai Devraj
PublisherRavjibhai Devraj
Publication Year1906
Total Pages435
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & Conduct
File Size17 MB
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