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________________ छात्रवृत्ति, प्रावि के रूप मे अनेक ट्रस्टो के माध्यम से राष्ट्र की महान् सेवा कर रहे हैं। जैन शास्त्रो मे श्राहारवान, ज्ञानदान, औषधदान और अभयदान को महत्व दिया गया है । महावीर ने स्पष्ट कहा है-जैसे जीवित रहने का हमे अधिकार है वैसे ही अन्य प्राणियो को भी । जीवन का विकास सघर्ष पर नही सहयोग पर ही श्राधारित है । जो प्रारणी जितना अधिक उन्नत होता है उसमे उसी अनुपात मे सहयोग और त्यागवृत्ति का विकास देखा जाता है । अत करण मे सेवाभाव का उद्रेक तभी होता है जब श्रात्मवत् सर्वभूतेषु जैसा उदात्त विचार शेप सृष्टि के साथ आत्मीय सम्बन्ध जोड पाता है। इस स्थिति मे जो सेवा की जाती है वह एक प्रकार से सहज स्फूर्त सामाजिक दायित्व ही होता है । लोककल्याण के लिए अपनी सम्पत्ति विसर्जित कर देना एक बात है और स्वयं सक्रिय रूप में घटक बनकर सेवा कार्यों मे जुट जाना दूसरी बात है। पहला सेवा का नकारात्मक रूप है जबकि दूसरा सकारात्मक रूप । इसमे सेवा व्रती "स्लीपिंग पार्टनर” बनकर नहीं रह सकता, उसे सजग प्रहरी बन कर रहना होता है। लोक सेवक मे सरलता, सहृदयता और सवेदनशीलता का गुण होना श्रावश्यक है । सेवाव्रती को किसी प्रकार का अहम् न छू पाए श्रोर वह सत्ता लिप्सु न बन पाए, इस बात की सतर्कता पद-पद पर बरतनी जरूरी है। विनय को जो धर्म का मूल कहा गया है, उसकी अर्थवत्ता इस सन्दर्भ मे बडी गहरी है । लोकसेवा के नाम पर अपना स्वार्थ साधने वालो को महावीर ने कहा है कि जो जीवन साधनो पर व्यक्तिगत स्वामित्व की सत्ता स्थापित कर दूसरो के सविभाग को नकारता है, जो अपने लिए ही सग्रह करके रखता है और दूसरो के लिए कुछ भी नही रखता, जो मर्यादा से अधिक भोजन एव जीवन स धनो का स्वय उपभोग करता है, वह आराधक नही, विराधक है । 4- धर्म निरपेक्षता स्वतंत्रता, समानता और लोककल्याण का भाव धर्मनिरपेक्षता की भूमि मे ही फल-फूल सकता है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म-विमुखता या धर्म-रहितता न होकर साम्प्रदायिक भावना और सार्वजनिक समभाव से है। हमारे देश मे विविध धर्म धीर धर्मानुयायी है। इन विविध धर्मों के अनुयायियों में पारस्परिक सौहार्द, सम्मान घोर एक्य की भावना बनी रहे, सबको अपने अपने ढंग से उपासना करने और अपने अपने धर्म का विकास करने का पूर्ण अवसर मिले तथा धर्म के आधार पर किसी के साथ भेद भाव या पक्षपात न हो इसी दृष्टि से धर्मनिरपेक्षता हमारे सविधान का महत्वपूर्ण अग बना है। धर्म-निरपेक्षता की इस पर्यभूमि के प्रभाव मेन स्वतंत्रता टिक सकती है और न समानता और न लोक-कल्याण की भावना पनप सकती है । जैन तीर्थंकरों ने सभ्यता के प्रारम्भ में ही शायद यह तथ्य हृदयगम कर लिया था। इसीलिये उनका सारा चिन्तन धर्मनिरपेक्षता अर्थात सार्वजनिक समभाव के रूप मे ही चला। इस सम्बन्ध मे निम्नलिखित तथ्य विशेष महत्वपूर्ण है 1 जैन तीर्थंकरों ने अपने नाम पर धर्म का नामकरण नहीं किया। "जैन" शब्द बाद - का शब्द है। इसे समण ( श्रमण ) महंं धौर निर्द्वन्ध धर्म कहा गया है। अमरण शब्द समभाव, श्रमशीलता और वृत्तियो के समन का परिचायक है। धर्हद शब्द भी गुणवाचक है जिसने पूर्ण 54
SR No.011085
Book TitlePerspectives in Jaina Philosophy and Culture
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages269
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size12 MB
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