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________________ (1500ई०) पद्मरस या पद्मण्ण पडित ने "हयसारसमुच्चय" (अश्वशास्त्र 1627 ई०), कीर्तिमान ने "गौचिकित्सा", अमृतनन्दि ने "वैद्यकनिघण्टु, शब्दकोश, साल्व ने "रसरत्नाकर" और वैद्यसागत्य", जगदेव ने "महामन्त्रवादि" नामक ग्रन्थो की रचना की थी। उत्तरी भारत मे जैन वद्यक ग्रन्थो के प्रणयन की दृष्टि से राजस्थान और गुजरात अग्रणी हैं। यहा प्राय श्वेताम्बर परम्परा मे ग्रन्थ लिखे गये। दिगम्बर प० प्राशाधर (नि० माडलगढ, भीलवाडा, राज.) ने 1240 ई. के लगभग वाग्भट के "अष्टागहृदय" पर "उद्योतिनी" सस्कृत टीका लिखी थी। गुजरात के ढकगिरि (धन्धुका) निवासी पादलिप्ताचार्य और उनके शिष्य नागार्जुन रसविद्या के महान् विद्वान हुए। नागार्जुन ने "पाश्चर्ययोगमाला" लिखी। इम पर श्वेताम्बर साधु गुणाकरसूरि (1239 ई०) ने सस्कृत टीका 'वृत्ति' लिखी थी। 1666 ई० के लगभग तपागच्छीय साधु हपंकीतिसूरि ने चिकित्मा पर "योगचिन्तामणि" ग्रन्थ लिखा था। श्री कण्ठसूरि ने पथ्यापथ्य सम्बन्धी "हितोपदेश" लिसा। ई० सन् 1386 मे मेरुतु ग ने "ककालीय रसाध्याय" पर सस्कृत टीका लिसी थी। माणिक्यचद ने "रसावतार" नामक रसग्रन्थ की रचना की थी। अचलगच्छीय पालीताणा शाखा के नयनशेखर ने स० 1736 मे चौपाई छन्द मे "योगरत्नाकर चोपई" की रचना को । केशवराज के पुत्र जैन श्रावक नयनसुख ने सवत् 1649 मे "वैद्यमनोत्सव" लिखा । तपागच्छीय लक्ष्मीकुशल ने मवत् 1694 में "वैद्यकसार रत्नप्रकाश" की रचना की थी। कच्छ के अजार नगर मे आगमगच्छ के साधु कवि विधाम ने स. 1842 मे "अनुपानमजरी" और रोगो की चिकित्सा पर म० 1843 मे "व्याधिनिग्रह" नामक ग्रन्थ लिखे थे। राजस्थान मे हसराज मुनि ने 17वी शती मे "भिपक्चक्रचित्तोत्मव" नामक निदान-ग्रन्थ की रचना की थी। कृष्ण वैद्य के पुत्र महेन्द्र जैन ने स. 1709 मे उदयपुर में "द्रव्यावलीसमुच्चय" लिखा था । तपागच्छीय हस्तिरुचिरण ने स० 1726 मे "वद्यवल्लभ" नामक रोग चिकित्मा ग्रन्थ लिखा। 18वी शती मे विनयमेरुगणि ने "विद्वन्मुखमहनसारसग्रह" और मुनि मानजी ने राजस्थानी मे "कवि प्रमोद" और "कवि विनोद" नामक वैद्यक ग्रन्थ लिखे । बीकानेर के रामलाल महोपाध्याय ने "रामनिदानम्" (रामऋद्धिसार) की रचना की। जयपुर मे खरतरगच्छीय दीपकचद्र वाचक ने स० 1792 मे महाराजा जयसिंह के काल मे "लघनपथ्य निर्णय" नामक उपयोगी ग्रन्थ लिखा था। खरतरगच्छीय यति रामचन्द्र ने "रामविनोद" और "नाडीपरीक्षा", श्वेताम्बर गडगच्छीय प्राचार्य जिनसमुद्रसूरि ने "वैद्यचिन्तामणि" की तथा बीकानेर के खरतरगच्छीय धर्मसी या धर्मवद्धन ने "डभक्रिया" की राजस्थानी मे रचना की थी। लक्ष्मीवल्लभ ने मभुनाथकृत सस्कृत "कालज्ञानम्" का स० 1741 मे पद्यमय भाषानुवाद किया था। स० 1755 मे खरतरगच्छीय समरथ ने वैद्यनाथ पुत्र शान्तिनाथ के मस्कृत "रसमजरी" पर पद्यमय भाषा टीका लिखी थी। मथेन राखेचा जोगीदास ने महाराज कुवर जोरावरसिंह की प्राज्ञा से बीकानेर मे स० 1762 मे "वैद्यकसार" की रचना की थी। फतेहपुर शेखावटी के निवासी चैनसुख यति ने स. 1820 मे बोपदेवकृत "शतश्लोकी" की राजस्थानी गद्य मे "शतश्लोकी भापाटीका" तथा लोलिबराजकृत "वैद्यजीवन" पर "वैद्यजीवनटबा" लिखे। बीकानेरवासी मलकचन्द ने यूनानी चिकित्सा शास्त्र के तिव्वसहाबी" का पद्यमय भाषानुवाद "वैद्यहुलास" (तिब्बसहावी भापा) नाम से किया था। 49
SR No.011085
Book TitlePerspectives in Jaina Philosophy and Culture
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages269
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size12 MB
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