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________________ जैन आयुर्वेद : समीक्षा और साहित्य डॉ० राजेन्द्र प्रकाश भटनागर जैन आगमो मे वैद्यकविद्या को भी प्रतिष्ठापित किया गया है । अत इसे धर्मशास्त्र की कोटि मे रखा गया है। अद्यावधि प्रचलित 'उपाश्रय" (उपासरा) प्रणाली मे जहा जैन यति-मुनि सामान्य विद्याओ की शिक्षा, धर्माचरण का उपदेश और परम्परामो का मार्गदर्शन करते रहे हैं, वही वे उपाश्रयो को चिकित्सा केन्द्रो के रूप मे समाज मे प्रतिष्ठापित कराने में भी सफल हुए हैं। आयुर्वेद शब्द "आयु" और "वेद" इन दो शब्दो से मिलकर बना है । "आयु" का अर्थ हैजीवन भोर वेद का ज्ञान । अर्थात् जीवन-प्राण या जीवित शरीर के सम्बन्ध मे समग्र ज्ञान "आयुर्वेद" नाम से अभिहित किया जाता है। जैन आगम-साहित्य मे चिकित्सा-शास्त्र को "प्राणावाय" कहते हैं। यह पारिभाषिक सज्ञा है। जैन तीर्थंकरो की वाणी अर्थात उपदेशो को 12 भागो मे वाटा गया है, इन्हे जैन-आगम मे "द्वादशाग" कहते हैं। इनमे से अतिम अग "दृष्टिवाद" कहलाता है। दृष्टिवाद के पाच भेद हैं--पूर्वगत, सूत्र, प्रथमानुयोग, परिकर्म और चूलिका । "पूर्व" चौदह हैं । इनमे से बारहवें "पूर्व" का नाम "प्राणावाय" है । "प्राणावाय" की परिभापा बताते हुए दिगम्बर प्राचार्य "अकलकदेव" (8वी शती) ने लिखा है ___ "जिसमे कायचिकित्सा आदि पाठ अगो के रूप मे सम्पूर्ण आयुर्वेद, भूतशान्ति के उपाय, विषचिकित्सा और प्राण-अपान मादि वायुमो के शरीर धारण करने की दृष्टि से विभाजन का प्रतिपादन किया गया है, उसे "प्राणावाय" कहते हैं।" इस प्रकार इस पूर्व मे मनुष्य के आभ्यतर अर्थात् मानसिक और आध्यात्मिक तथा बाह्य अर्थात् शारीरिक स्वास्थ्य के उपायो, जैसे-यम, नियम, आहार, विहार और प्रौषधियो का विवेचन है। साथ ही, इसमे दैविक, भौतिक, आधिभौनिक तथा जनपदोध्वसी रोगो की चिकित्सा का विस्तार से विचार किया गया है। जैन-ग्रन्थ "मूलवात्तिक" मै आयुर्वेद-प्रणयन के सम्बन्ध मे कहा गया है-"अकाल, जरा और मृत्यु को उचित उपायो द्वारा रोकने के लिए आयुर्वेद का प्रणयन किया गया है।" 46
SR No.011085
Book TitlePerspectives in Jaina Philosophy and Culture
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages269
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size12 MB
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