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________________ रूपक, लोककथा, स्तवन, सज्झाय, छद, हमचडी इत्यादि । इस साहित्य मे उस समय की प्रचलित भाषा के स्पष्ट दर्शन होते है जो अन्यत्र शायद ही हमको देखने को मिलेंगे। जैनो के इस सारे साहित्य की एक विशेषता यह है कि इसमे दो हजार से भी अधिक वर्षों की लोक-सस्कृति के दर्शन होते हैं जो सस्कृत साहित्य मे नही होते, क्योकि सस्कृत साहित्य प्रधानत उच्च एव शिक्षित वर्ग से ही सम्बन्धित रहा है जबकि प्राकृत साहित्य सामान्य जनता को ध्यान में रखकर रचा गया है। इस प्राकृत साहित्य मे हमे अनेक सास्कृतिक विपयो के बारे में जानने को मिलता है जैसे कि समाज-रचना, रीति-रिवाज, खान-पान, वस्त्राभूषण, आनद-प्रमोद के साधन, दुख-सुख के प्रसग, आर्थिक दशा, लोकमान्यताए, देवी-देवताओ पर विश्वास, मन्त्र-तन्त्र, लोगो का चिन्तन, उनके जीवन का आदर्श, आजीविका के साधन, जन्म, विवाह, मृत्यु आदि अनेक सस्कारोत्सव, गीत, सगीत, लोकनृत्य, त्यौहार, पव जिनका अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से वडा हो महत्वपूर्ण है और इस साहित्य के अध्ययन के बिना भारतीय संस्कृति का हृदय विशद रूप से शायद ही जाना जा सकता है। सस्कृत भाषा हर शताब्दी मे एकरूप रही परन्तु प्राकृत भाषाए जनभाषाए होने के कारण क्षेत्र एव काल के अनुसार बदलती गयी और भिन्न-भिन्न प्रान्तो मे भिन्न-भिन्न भाषामो के रूप में विकसित होकर आधुनिक रूप में प्रचलित हई। भारत के प्राचीनतम वैदिक साहित्य मे भाषा की क्षेत्रीय बहुलता के दर्शन होते है परन्तु सस्कार देकर जब उस भापा का सस्कृत के रूप में प्रचलन हुआ तबसे वह उसी रूप मे आज तक प्रचलित रही इस कारण भारत की आर्य भाषामो के ऋमिक विकाम की कडियो को जोडना हो तो वह विभिन्न प्राकृत भापामो के साहित्य के माध्यम से ही जोडा जा सकता है। जैनेतर विद्वानो ने भी अमुक अश मे प्राकृत साहित्य की रचना की है परन्तु वह साहित्य एक तो अल्पाश है और हरेक शताब्दी की उनकी रचनाए भी नही मिलती। शताब्दीवार जन-भाषा के स्वरूप का अध्ययन करना हो तो जैन साहित्य का ही प्राश्रय लेना पड़ता है। जैनो ने अपने साहित्य की रचना इस दृष्टि से नहीं की है परन्तु जाने-अनजाने यह ऐतिहासिक विशेपता उनके साहित्य में उपलब्ध होती है। जैनेनर प्राकृत रचनाम्रो का निर्माण बहुधा कृत्रिम प्राकृत भाषा (मुख्यत सस्कृन मे सोचकर प्राकृत व्याकरण के नियमो के अनुसार कृत्रिम भापा) मे हुआ है । अत उनमे प्रचलित जन-भापा के तत्व मिलने की सम्भावना बहुत कम मात्रा में की जा मकती है। यह बात अवश्य है कि एक बार जब कोई जनभाषा साहित्य मे उतर पाती है तब वह भी व्याकरणात्मक एकरूपता के कारण कृत्रिम बन जाती है और जन-बोली की लाक्षणिकतानो को सजोये नही रख सकती। फिर भी जैन प्राकृत साहित्य की यह एक विशेषता रही है कि उममे प्रचलित जन-भाषा के तत्व यत्र-तत्र पर्याप्त मात्रा में मिल जाते हैं। इस कारण शास्त्रीय प्राकृत भाषा का उपयोग होने पर भी उसमे काल एव स्थान सम्बन्धी विशेषताये उपलब्ध हो ही जाती है। इस दृष्टि से जैनो ने भारतीय आर्य भाषामो की अद्वितीय सेवा की है और इस सदर्भ में उनका जो महत्वपूर्ण प्रदान रहा है वह अन्य किसी भी धर्म का नही रहा है। बौद्धो के पालि त्रिपिटक साहित्य के कुछ ही ग्रन्थो मे प्राचीन भाषा के दर्शन होते हैं अन्यथा सभी ग्रन्थो की भाषा समाजित रूप में एक समान बना दी गयी हैं। त्रिपिटक के सिवाय अन्य बौद्ध साहित्य भी शास्त्रीय पालि भाषा मे ही मिलता है। इस भाषा के अलावा किसी और
SR No.011085
Book TitlePerspectives in Jaina Philosophy and Culture
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages269
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size12 MB
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