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________________ शब्द मे सभी पदापों को जानने की क्षमता होती है। देश और काल के अनुसार उन्हे मकेत मिलता है। जब शव के स्वभाव मौर सकेत दोनो को जान लिया जाता है तभी उसका यथार्थ प्रयं ज्ञात होता है । इसीलिए श्री देयसूरि ने कहा है "स्वाभाविक सामध्यं पोर मकेत मे प्रथ की जानकारी करना ही शब्द है।" इससे यह सिद्ध होता है कि शब्द एक-अनेक रूप वाला होता है। पयोकि स्वभाव से वह एक और सकेत से अनेक होता है। इसी तरह विभिन्न तर्क-वितर्क के प्राधार पर जन दशन यह सिद्ध करता है कि वाच्य पोर वाचक सामान्य-विशेष, एग-अनेक रूप हैं। या विमा रामो, विधारीठ, वारारामी (उत्तर प्रदेग) प्रालस्य के साथ मुग नही रहता है, निद्रा के माथ विद्या सम्भव नही होती है, मासक्ति के माय वैराग्य पटिन नही होता है, तथा जीव-हिमा के साथ दयालुता नही ठहरती है। (समणसुतं, 167) सम्यग्दृष्टि जीव अध्यात्म मे शका रहित होते हैं, इसलिए वे निर्भय होते हैं, कि मम्यग्दृष्टि जीव मात प्रकार के भयो से मुक्त होते हैं, इसलिए निश्चय ही वे अध्यात्म मे शका रहित होते है। (समणसुत्त, 232) 29
SR No.011085
Book TitlePerspectives in Jaina Philosophy and Culture
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kamalchand Sogani
PublisherAhimsa International
Publication Year1985
Total Pages269
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size12 MB
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