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________________ द्वारा कौए और कुत्तेकी पदवीको प्राप्त हो लज्जित न होना पडै, जैसे कि एक सुशीला स्त्रीने एक कामातर राजकुमारको यह दोहा कह लज्जित कियाथा. "टोहा-मैं पियकी जठन भई, ग्रहण जोग नहिं मान। जो वह मोकू चहतहैं, के कौआ के स्वान ॥" जब हम जगत्में ऐसी जातियोंकी ओर दृष्टि करतेहैं कि जिनके मतमें इस विधवाविवाहको कामातुरोंने जायजभी करदियाहै तो हमको प्रमाण और अनुभव होताहै कि यह कार्य बुरा और निंदनीयहै क्योंकि उनमें जितने उत्तमवंश ( आली खान्दान ) धारी, चाहै उनके मतमें वह कार्य जायजभी कर दियागयाहो वे उसको महान् हीनाचार निंदनीय और अपने पढ़के विरुद्ध समझतेहैं, यह सबको प्रगट है देखो ! कहीं २ नीचजातिमें विधवाको दूसरेके घरमें बिठालदेते है परन्तु उसको विवाह नहीं कहते किन्तु धरेजा कहते हैं क्योंकि विवाहतो स्त्रीका एकहीवार होताहै, जब वह दूसरेके घर बैठालते हैं तब उसको दिनमें नहिं लेजाते किन्तु रातमें लेजाते हैं और फिरभी जो सदर रास्ता होताहै उस रास्तेसें नहीं ले जाते औरही रास्तेहारा लेजाते हैं और वह स्त्री लज्जाके मारै बहुत दिनोंतक भौरोंको मुहमी नही दिखाती, यदि यह कार्य श्रेष्ठ और उत्तम होतातो क्यों सदर रास्ता छोडकर रातमें दूसरी राहसे लेजाते ? इसकार्यको नीचजातिभी नीच समझती है तो उच्चजाति क्या उच्चसमझैगीकदापि नहीं. अतः इस दृष्टान्तादिकर विशेष विवरण वृथाहै । विवाह समयकी विधि और मंत्रोंके आशयों तथा प्रभावको समझना चाहिये जिसके कारण पितादिक तो क्या स्वयं स्त्रीको अपना वा पुरुषकोभी स्त्रीके पुनर्विवाह करनेका अधिकार नही रहताहै,और जो मंत्रके स्वरूप और उसकी शक्तिको नहीं समझते हैं वे पृथ्वीके सर्वही मतोंसे बहिर्मुखहै । और पुरुषके पुनर्विवाहसे यह जरूरी नही आसक्ता कि स्त्रीकाभी पुनर्विवाहहो क्योंकि दोनोंके पदस्थ (दरजे) में असमानता सर्व जन मान्यहै और क्यों नहो कर्मने स्वतः असमानता रची है, यथा स्त्री गर्भ और स्तनके विष दुग्ध धारण करती है, पुरुष नहीं; स्त्रीकै वज्र वृषभ नाराच संहनन नहीं, और उसको केवल ज्ञान तथा मुक्तिकी प्राप्ति नहीं हो सक्ती, विपरीत इसके पुरुषको उक्त संहनन तथा केवल ज्ञानादि मुक्तिकी प्राप्ति होती है, दूसरे पुरुषकै पापके नाशनेकी शक्ति अधिक है, विपरीत इसके स्वीमें कम है, और तिसपरभी उसकै मासिकादि धर्मद्वारा सदैव हिंसाकी प्रवृत्ति रहती है। यदि इतनेपरभी को समानतारूपी मदिराका पान करैगा ते अवश्यहै कि उन्मत्त हो 'एक स्त्रीकै एक कालकेविषे अनेक पति' होनेका हकम सादर कैरैगा और फिर वेश्या और भायोंमें भेद नहीं कर सकेगा तथा अन्य बहुत खराबियां होंगी. ऐसे अज्ञानियोंको भ्रमकी चादर उतार “ पति पत्नी" भादि शब्दोंका अर्थ किसीसे समझना चाहिये । और पाठकोंको मालूम रहै कि पहिले कोई स्त्रियोंके सती होनेका रिवाज नहींथा किन्तु अर्जिका मौर श्राविका होतीथीं, और यदि कोई होतीभीथी तो बहुत कम जैसे कि भवभी हो जाती है, परन्तु जबरन करना तो थाही नहीं और यह जो कुछभी इसकी अधिकता हुईथी सो मुसल्मानादिकोंके राज्यके समयसे हुईथी, और इसीसमयमें यदि कहीं जबरनभी यह काम होताथा तो प्रायः क्षत्रियोंमें जिनको कि अपने वंशकी मान्यताका अधिक खयाल होताथा और जिनकी लीलाही निराली होतीथी और जिसको भाई इतिहासोंसे अनुभव कर सक्ते हैं, और यह हम जोरसे कहा सक्ते हैं कि यदि औसत निकाला जाय तो यह निश्चयहै कि जितना सदाचार इस जैन जातिमें हैं
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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