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________________ - जैनधर्मपर व्याख्यान. देव, गुरुदेव, धर्म और अपने कर्त्तव्यका स्मरण प्रत्येक जैनीको निम्नलिखित १२ बातें करना; पश्चात् तीर्थकरोंका ध्यान करना; फिर लक्ष्यमें रखना चाहिये ऐसा भावना अथवा आज मैं अमुक २ विषयसेवन नहीं करूंगा इसकी अनुप्रेक्षा. कहा है. इन्हें बारह भावना प्रतिज्ञा लेना. उदाहरणार्थ, मैं आज इतने अथवा द्वादशानुप्रेक्षा कहते हैं. भातमे अधिक भात नहीं खाऊंगा, किंवा इतने | (१) इस संसारमें स्थिर कोई नहीं हैं. (सेर भर अथवा दो सर ) पानीकी अपेक्षा अ- सब क्षणभंगुर हैं इसे 'अनित्यानुधिक पानी नहीं पिऊंगा, अमुक शाक नहीं | प्रेक्षा' कहते हैं. खाऊंगा, इतने समयसे अधिक बैलूंगा नहीं. अ- (२) इस संसारमें जीवको किसीका समुक समयसे अमुक समय तक किसीसे वचना- हारा नहीं है. हम जैसा कर्म करेंगे लाप नहीं करूंगा; मौनव्रत धारण करूंगा. वैसा फल भोगेंगे, इसे अशरणाऐसी शपथें लेनेका उद्देश्य यह दिखता है कि, नुप्रेक्षा कहते हैं. मनुष्यको अपने मनको वशमें रखनेका अभ्यास | ( ३ ) पूर्व जन्मोंमें हमने अनेक दुःख भोगे होवे, इसे आत्मसंयमका पाठही कहना चाहिये. अब हमें इस दुःखसे छुट्टी पाने अपने हिन्दू समाजमें भी स्त्रियां चातुर्मासमें चा- केलिये प्रयत्नशील होना चाहिये न्द्रायणादि नाना प्रकारक बन करती हैं, यह यह संसृतिभावना है. व्रत करनेकी चाल पहिले बहुधा इसी स्तुत्य ( ४ ) हम इस संसारमें अकेले ही हैं. यह उद्देश्यसे प्रचलित हुई हैं, ऐसा जान पड़ता है. एकत्वभावना है. इस आत्मसंयमनकी दृष्टि से देग्वनमें व्रत उत्तम है ऐसा कहना पड़ता है; औ (५) संसारमें सम्पूर्ण वस्तुएँ हमसे भिन्न र आत्मसंयमन जितना स्त्रियोंको उतना हैं. यह अन्यत्वभावना है. ही पुरुषोंको भी हितकर होनेसे स्त्रियोंके समान, (६) यह शरीर महा अपवित्र है. इसका पुरुषोंको भी व्रत करना चाहिये, इसमें संदेह क्या अभिमान करना ? ऐसा मानना नहीं. परंतु हमारे भाई व्रत करते हैं तब क्या यह अशुचिभावना है. यह आत्मसंयमनका उद्देश्य यथार्थमें उनके | (७) जिनके योगोंसे नवीन कर्म उत्पन्न ध्यान व मनमें रहता है? यदि इस विषयमें होते हैं ऐसे विचार, उच्चार व आकिसीसे पूछा जावे तो, 'नहीं' यही उत्तर चारोंका चिंतवन करना, यह आस्रव मिलेगा यह निश्चित है, कहनेको तो उपोषण भावना है. ( उपवास ) और नानाप्रकारके पदार्थ डकार (८) नवीन कर्मोसे आत्मा बद्ध न होने आनेतक खाना, इसे यदि आत्मसंयमन कहना पावे, ऐसे उपायोंकी योजना करना, है, तो इसमें कुछ भी विवाद नहीं है. यह संवरभावना है.
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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