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________________ मैनधर्मपर व्याख्यान. - पदाचे, लोगोंकी समझमें नहिं आता, यह आश्चर्य है. प्राणीमात्रपर दया करना यह सामान्यविषय पानीका एक बूंद लेकर सूक्ष्मदर्शकयंत्रसे देखो नहीं है सो ठीक है, तो भी अहिंसातत्त्व कोई तो उसमें कितने असंख्य जीव विलविलाते मर्यादित रीतिसे पाला जाय, तब ही श्रेयष्कर है, दिखते हैं ? पानी गरम करनेसे यह जीव अव- नहीं तो वह हास्यास्पद हो जाता है. श्य ही मरते हैं, परन्तु अहिंसातत्त्व पालनेवाले . अहिंसाके कारण जैनियोंमें मांस भक्षण सजैनी ठंडा पानी नहीं पीते. अर्थात् वे अहिंसाके । र्वथा ही वज्र्य हैइसमें कुछ कहलिये हिंसा करते हैं, ऐसा कहना चाहिये. निषिद्ध माने हुए ना ही नहीं है, और इसी कार खाज, क्षय, प्लेग, विषहरी ताप वगैरह रोग : णसे मधु (शरद ) व मक्खन भी जंतुओंके विकारसे उद्भवित होते हैं, ऐसा जैनशास्त्रोंमें निषिद्ध माने गये हैं. मधु मक्खिआजकालके ब्याक्टेरिया लोजिष्ट (जान्तुशास्त्रज्ञ) योंके छत्तेमेंसे निकालनेमें असंख्य मक्खियें पुरुषांका कहना है, इन रोगोंकी औषधि करना- प्राण देती हैं. इसलिये मधु निषिद्ध है और मानो इन जंतुओंको मारना है. अच्छा, यदि इन मक्खन दहीसे निकलता है व दही जो है सो जंतुओंको नहीं मारा तो वे मनुष्योंके प्राणोंकी दूधका विकार है उस दहीमें उत्पन्न हुए अत्यन्त बलि लेते हैं। ऐसे समयमें औषधि न करना सूक्ष्म जंतुओंके विलौनेसे मक्खन होता है. ऐसा मनुष्यके जीवकी कुछ कीमत ही नहीं समझना है. पदार्थ वत्ता शास्त्रज्ञोंका मत है. इसलिये मतते है. यलाचारसे प्रवर्तते हरा भी जो कल हिंसा होती क्खन निषिद्ध ठहरा । परन्तु इस (Permentaहै उसो पापको दूर करनेकेलिये गृहस्थको प्रति- tion) पद्धतिका अर्थात् जंतु उत्पन्न करके दिन वपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, सयमपालना, : ( महुवे आदि पदार्थों को सड़ाकर ) तयार यथाशक्ति तप करना, दान देना ये षटकर्म करनेकी आया है. तथा प्रति दिन दोनों समय सामाजिक किया हुआ मद्य जैनशास्त्रोंमें निषिद्ध माना हवा ( मंध्यावंदन ) करनेकी आज्ञा है. उसमें दिनभरके नहीं दिखता, यह बडा आश्चर्य है. (१) किंतु पापोंकी संध्यासमय और रात्रिके रिसादि कर्मोकी प्रात:कालकी सामायिकमें आलोचनादि करके गृहस्थको हिं; सादि पापोंको टालकर पुण्यका भाग अधिक रसनेको ! (१) 'जैनशास्त्रोंमें मद्यपानका निषेध माना हुवा आज्ञा है. सो बहुधा गृहस्थ जो विवेकी हैं. यथाशक्ति नहीं दीखता' ऐसा व्याख्यानकारका मत है सो भ्रमाइन नियमोंको पालते हैं. इस कारण गृहस्थको यत्ना- 'त्मक है. ऐसा लिखनेका कारण यह दीखता है कि, चारपूर्वक योग्य वस्त्रसे जलको छानकर जीवोंको उसी जैनशास्त्रोंकी प्राप्तिकी मुलभता न होनेके कारण क्ये, बावडी, तालावमें पहुंचाकर गर्म करने में हिंसा बहुत जैनाचारका कोई भी ग्रन्थ न्याझ्यानकारके देखने में नहिं थोड़ी होती है. वह भी गृहस्थके तजनेयोग्य संकल्पी हिंसासे आया होगा. यदि जैनोंके श्रावकाचार देखनेमें आते बाहर है और गृहस्थके षट्कर्म सामायिकादि करनेसे | तो ऐसा कदापि व्याख्यानदाता नहिं कहते. यह भिन्नवह दोष टल जाता है. साधु किसी प्रकारका भी आरन धर्मी विद्वानों की भूल है जो जैनियोंके सर्वोत्तम ग्रंथ देखनेवा हिंसाकर्म नहि करते गृहस्थ अपनेलिये रसाई आदिक से कोशों भागते हैं. पाठकोंका भ्रम दूर होनेकेलिये मद्यपान जल गर्म करने आदिका आरंभ करता है. मुनि उसीमेंसे | निषेधके कुछ प्रमाण नीचे दिये जाते हैंजल, भोजन भक्तिपूर्वक देनेसे ग्रहण करते हैं. जैनधर्ममें गृहस्थी और मुनिके (साधुके) दो प्रकारके
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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