SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनग्रन्थरत्नाकर प्रकाशित होने लगा. इसके प्रत्येक खंडमें ८० से १२५ तक पृष्ठ रहते हैं. जिसमें चारों अनुयोगोंके अतिरिक्त जैनाचार्योक रचे हुए उत्तमोत्तम नाटक, चम्पू, काव्य, अलंकार, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक, गणित, शिल्प, इतिहास, मूल सटीक वा भाषाटीका सहित तथा नवीन प्राचीन भाषा कवियोंके बनाये हुए उत्तमोत्तम गद्यपद्यमय समस्त विषयके ग्रन्यरूपी रत्न क्रमसे प्रकाशित होते हैं. अर्थात् एक ही अंकमें थोड़े २ दो चार प्रन्थ नहिं लगाकर एक ही ग्रन्थ लगाया जाता है. जो कि एक वा दो तीन अंकमें पूरा हो जाता है. वर्तमानमें इसके दो खंडमें ३०६ पृष्ठका ब्रह्मविलास प्रकाशित हो गया. तीसरे में दौलतविलास, आप्तपरीक्षा और आप्तमीमांसा ( देवागमस्तोत्र) पूर्ण है. चौथे और पांचवे अंकमें स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा भाषाटीका और संस्कृत छायासहित पूरी हो जायगी. द्रव्य व्यय और परिश्रमव्ययकी अधिकताके कारण १२ अंकोंका मूल्य ६) रु. और डांकव्यय ॥) रक्खा था. परन्तु हमारे अनेक भाई एक साथ मूल्य पेशगी भेजकर इसके ग्राहक बनने में असमर्थ हैं. इस कारण अनेक विद्वानोंकी सम्मति और प्रेरणासे अब मूल्य घटाना पड़ा है अर्थात् अवसे १२ अंकोंका (खंडोंका) मून्य डांकव्ययसहित ५) ही अग्रिम लिये जायगे. अग्रिम मूल्य पाये बिना किसीको भी उधार नहिं भेजा जा सका. नमूनेकी १ कापी |). वी.पी.द्वारा लेनेसे 13) में तीसरे अंककी भेजी जाती है. कहिय पाठक महाशय! इतना बडा मासिक पुस्तक कितना सस्ता हो गया. देखिये ब्रह्मविलास जुदा लेनेसे १॥०) देना पड़ता है, परन्तु ५) रु. एकबार देकर वारह खंडोके ग्राहक बननेसे यह ही ब्रह्मविलास सिर्फ u)। में ही आपके घर पहुँच जायगा. इसी प्रकार दौलतविलास स्वामि कार्तिक यानुप्रेक्षा बनारसीविलास वंगरह सब प्रन्थ आपको सस्तेमें ही मिल जाया करेंगे. लीजिये और भी सस्ता लीजिये. यदि कोई महाशय एकदम ५०) रु. भेजकर इसके सहायक वा याव व ग्राहक बन जायगें, उनको इस प्रन्थरत्नाकरका फिर कभी एक भी पैसा देना नहीं पड़ेगा ५०) रुपयके ३) रुपये व्याजमात्रमें ही यह पुस्तक घर बैठे पहुंच जाया करैगा. यदि किसीको इसका यावनीव ग्राहक नहिं रहना हो तो प्रत्येक तीसरे वर्षके ११३ खंडके प्रकाशित हुए बाद सूचना देनसे ५० रु. वापस मिल जायगे. परन्तु हर तीसरे वर्षके अंत हुयेविना बीचमें नहिं मिलेंगे. जिनको सबसे सस्ता अर्थात् ३) रु. में जैनग्रन्धरत्नाकर १२ खंड लेने हों और हमारा पूर्ण विश्वास हो, वे अवश्य ही ५० ) रुपये भेजकर इसके ग्राहक वा सहायक बन जावें. दौलतविलास प्रथमभाग. अर्थात् कविवर पं० दौलतरामजीकृत पद, जकडी, छहढाले आदिका संग्रह. अहा! आज कैसा आनन्द है कि जिस कविवरकी जगन्मोहिनी अपूर्व कवितावाले आध्यात्मिक पदोंपर सर्वस्व न्योछावर कर दिया जाय तो भी तृप्ति नहीं होती. जिसके एक २ पदको आध्यात्मिक रसिकजन वा भक्तजब मेघबिन्दुको चातककी तरहँ तरसते थे, जिस कविताको बाँचकर भक्तजन भक्तिरसमें और आध्यात्मिकजन अध्यात्मरसमें मग्न हो जाते हैं, उसही असली कविताका संग्रह करके और बड़े परिश्रमसे शुधवाकर छपाया है. छहढाले वगेरहके शोधनेमें जहांतक बना है यही खयाल रक्खा है कि कवितामें जैसे शब्द दौलतरामजीने रक्खे थे, वे ही रक्खे हैं. अन्य संशोधक व प्रकाशक महाशयोंकी तरहँ स्वकपोलकल्पित शब्द रखकर कविताको नहीं विगाड़ा है. मूल्य -1) डांकन्यय =) है. जैनी भाइयोंका वही दासपन्नालाल जैन मैनेजर-जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, पो० गिरगांव (बम्बई.)
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy