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________________ परिशिष्ट. ७१ भोगवेयोग्य नहीं है वे कष्ट कामविष्टा खानेवाले करसकै है यासे दिव्य तप करो जासे सत्त्वशुद्धि हो वाहसि अनन्त ब्रह्मसौख्य होवे है ॥१॥ विमुक्तिद्वार तो महात्मानकी सेवा है तमोगुणको द्वार स्त्रीनके संग करबेवारे भगवानको संग है वे महात्मा हैं जो समदर्शी प्रशांत क्रोधत्यागी मुहृद साधु हैं ॥ २ ॥ जो कोई मेरेमें ईश्वरमें सौहृदता करें है देहके भरवैवारे विषयी जनोंमें घरमें स्त्री पुत्रमें मित्रमें प्रीतियुक्त न होय हैं लोकमें जितना अर्थ होय तितनो प्रयोजनमात्र आसक्ति करै हैं ॥३॥ जो इन्द्रियोंकी प्रीतिके अर्थ परिश्रम करें हैं सो प्रमत्त निश्चयकरके प्राप्तकर है ये हम मुन्दर न माने है जाते आत्माको ये बी क्लेश दाता देह होतो भयो ॥ ४ ॥ जबतक आत्मतत्व नहीं जाने है तबतक अज्ञानसे तिरस्कार होय है जबतक ये जीव कर्मकांड करतो रहे है तबतक सब कोंकी आत्मा ये मन और शरीर बंध होय है ॥५॥ विद्यासे जब आत्मा ढक जाय हे तव मनको कर्म करके बश कर माक्षातमें जो वासुदव हूं सो मेरेमें जबतक प्रीति याकी न हायगी तावत देहके योग वियोगसे मुक्त न होयगी ॥६॥ जघ जसे गुण हैं तगे उनकी चेष्टाको न देखें है तब अपने म्वार्थमें प्रमत्त होय सहमा विद्वान सब स्मृति भूल अज्ञानी होय मथुन्यमुखप्रधान ऐसे घरको प्राम होयकर नहां अनेक तापनको प्राप्त होय है ॥७॥ इन दोनों स्त्रीपुरुषको आपसमें पुरुषको स्त्री करके जो ये मथुन भाव है सोई हृदयकी ग्रंथि कहे है यात घर, क्षेत्र, पुत्र, कटुम्ब धन करके जीवका हम मम ये सब मोह होय ॥ ८॥ अव हृदयकी गांठ बंधवेवारो सब कर्ममें जाको अधिकार ऐसा मन बंधो भयो दृट शिथिल हो जाय है तय जीव सारसे सटे है मुक्त होयकर सब हे उनको ब्यागकर परमेश्वर के लोकको प्रान हाय ह।। ९॥ सार असार विवेकी अंधकार नाशक मेरेमें भक्ति अनुवृत्ति करें तृष्णा, सुख, दुखका त्यागकर गर्वत्र जीवको व्यसननकी त्यागता करक तत्व जानने की इच्छा कर तपसे सव चेष्टा निवृत्त कर तब मुक्त होय ॥ १० ॥ मेरे अर्थ कर्म कर नित्य मेरी कथा कर मेरी सरीके देवके संगसे मेरे गुण कीर्तन करवेतें कोईसे वर न कर अपने समान सबको समझे इन्दिनकी चाहकों हे पुत्र देहगेहसे आत्मा बुद्धि को त्याग करै ॥११॥ वेदान्तशास्त्रको विचार कर एकांतमें सदा वसे सदा प्राण इंद्रियें आत्मा इने जीत सब शास्त्र में श्रद्धा गदा ब्रह्मचर्य धारं प्रमाद कर कुछ न कर बाणांनको जीत ता बैकुण्ठ होय है ॥ १२ ॥ मब जंग मेरे भावको ज्ञान निपुण ब्रह्मज्ञान विशेष करके दीम होय तो जीव उद्धरं है योगाभ्यास, धय, उद्यम इनसे युक्तकुशल होयके अहंकार रूप लिंगको त्याग करै॥ १३ ॥ अविद्या करके प्राप्त काशय हृदयका ग्रंथिको जो बंध है सो या योग करके जैसी हमने उपदेश कीनो ह तसो मुन्दर प्रकारस विचार सर्वत्याग योगमें उपारम कर ॥१४॥ पिता पुत्रनको गुमशिष्यको नपप्रजाको बडे छोटेनको मेरे लोककी कामनावारो मेरे अनुग्रह रूप जो अर्थ होय सो ऐसे शिक्षा कर जो कर्ममें मूर्ख शिष्यन है या तत्वकंन जाने है इन सबकु या प्रकार क्रोध त्याग कममें न लगाव ॥१५॥ जाके नेत्र नहीं हैं ऐसे अंधेको गढे में पटकमसे मनुष्य कोन अर्थकुं प्राप्त होयगो ऐसे ही सब जीवन को विषयों में जो चाहना है वो ही अवकृपके समान नर्कमें या जीवकुं पटके है ।। १ ।। जाकं भयंत कामना है ऐसो नष्ट दृष्टि वारो ये सब लोक आप आपने कल्याणके हेतुको न जान है सुखके लेश मात्र हेतुकों आपसमें पर कर है वासे अत्यत दुख होय है, सो मूर्ख लोग न जाने हैं ॥१५॥ जो विद्यामें वर्तमान कुबुद्धि रस्ता छोड और रम्ता चले ऐसे अंधेको सब ओरकी जाननेवारो दयाल विद्वान वाको कुमार्गमे कदीभी न नलने देते हैं ।। १८ ॥
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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