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________________ परिशिष्ट सब जीव समूहोंका पाप नाशक अत्यंत कल्याणदायक श्रेष्टगुणगणोंके कहिवेके बिना और प्रकारसे न जा सके है ॥ ५॥ हे परमपरिवारके जीवोंके अनुरागसे कहे भये जो गद्गद अक्षरकी स्तुतियें जल शुद्ध पालवकुशादि मारी तुलसी इत्यादि दृर्वाअंकुर इन करके करी भई पूजाकरकै निश्चय है कि आप प्रसन्न होओ हो ॥६॥ यद्यपि ऐसी बात है तथापि आपको बहुभारसे भरीमई या पूजाके बिना आपके मतके अनुकूल और कुछ नहीं देखें है ॥ ७॥ हे नाथ दिनरात अनायास करके अपृथभागसे अनेकबार होवे ऐसे सब पुरुषार्थस्वरूप जो आत्मा आप तिनसें अशीर्वाद मागवेके विना और कुछ चाह योग्य होयवेको समर्थ नहीं होय हैं ॥ ८॥ हे सब श्रेष्ठनसे बी महाश्रष्ट जैसे हम मरीके परम अज्ञानी आन्माको कल्याण और भय न जाने अत्यंत करणा करके आपकी जाम महिमा से अपवर्गकी कल्पना करत कुछ हमारी पूजाकी अपेज्ञा न करके दतरकी यहां आप लखाई पड़े हो ॥९॥ यद्यपि तुम वर देवकुं आविर्भाव भए तथापि हे पजनीय यही वर है कि या राजर्षिके यज्ञमें वरदाता आप अपने भक्तनके नेत्रके सन्मुख भये ॥ १० ॥ काऊकों संग न करतो ऐसो तीक्ष्ण ज्ञानम्प अनिमे विशेषकरकै सबमिल जिनके पहुये आपमें जिनके स्वभाव आत्माराम मनन कर इधरको ऐसे मुनीनको निरन्तर असंख्यात गुणनके गण परममंगलके स्थान गणगणनके धारा कथन करवेयोग्य तुम हो ॥1॥ अब कोई समय कोई प्रकारसे छौंक आवती समय जंभाई आयवेकी विरियां और दुखकी जो अ. स्था जितनी है तिनमें विवश हम सरी केनको स्मरणके अर्थ ज्वरम मरणदशाम बी सकल पाप नाश करने वारे नुयारे गुणों के करे भये नामय हमारे बचनसे मदा निकी ये ही मार्ग है. कलियुगमे हरनाम बिना कोई और उपाय नहीं है. ॥ १२ ॥ हरेन.व नामैव नामैव मम जीवनम् । कलानायव नान्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥ १२ ॥ क्योंकि ये राजर्षि पुत्रकी कामन्ग करके आपके ममान पुत्रका वाहना कर है सो म्वर्ग मोलके आगीवाद दाता ईश्वर आपकी मन्दर उपमना करे है, पुत्रहीकी त्राहमें मनोरथ है निधनके धनदाता हो परन्तु ये वर मांगनो आपसे ऐसो है कि जैसे धानकी तुपको कूटनो तदत जानी ॥ १३ ॥ या संसारमें तुम्हारी सबके पराजय करबेधारी माया करके सब पराजित होय है जाकी पदवी गानी जाय तासे ढकी मात नाय, विपयरूप विपके वेगसें जाकी मति विधी नाय, जाने नहात्मानके चरण. नकी उपासना कीनी, वो पराजित नहीं होय है ॥ १४ ।। चौथा अध्याय. श्रीशुकदेवजी बोले कि श्रीऋषभदेवजीके उत्पत्ति हायवे करके जो भगवतके लक्षण हैं वे देखते भये सबके समान रह, वाहर भीतरकी सब इन्द्रिये जीत वैराग्य, ऐश्वर्य, महावैभव जिनको दिन २ प्रति बहै, ब्राह्मण जिनके देवता ऐसे गब मंत्री प्रजा या धरतीकी रक्षाकेलिये सबजने चाहना करते भये कि सब राज्य ऋषभदेवजीको देव ये अमात्यादिक विचारते भये ॥ १ ॥ अतिश्रेष्टतम विपुल, ओज, बल, लक्ष्मी, यश, वार्य, शौर्य, ये देखकर तिनके पिता ऋषभ ये नाम करते भयं ॥ २॥ तिनके ऊपर इन्द्र भगवान म्पर्धाकर वा खण्डमें नवर्षों ये जान योगीश्वर भगवान ऋषभदेवजी हंसकर अपनी आत्मयो. गकी मायाकर अज नाम “प्राचीन जाको नाम ऐस भारत" वर्षमे माप वर्षावते भये ॥ ३ ॥ नाभि तो अपने मनोरथ और सुन्दर प्रजाको प्राप्त होयकर अति आनन्दसे विव्हल अक्षर गद्गद वाणी करके अपनी इच्छासे मनुष्य लोक समान धर्म ग्रहण करनेदारे भगवान पुराण पुरुषको, माया
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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