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________________ ६० जैनधर्मपर व्याख्यान. ध्यानको देखते हैं और विचार करते हैं कि हमको उन तीर्थकरों के समान होना चाहिये जिनकी ये मूर्तियां हैं और हमको आत्मध्यानमें इसप्रकार मग्न होना चाहिये जैसे ये मूर्तियां बताती हैं । हम मूर्तिके ध्यानको देखते हैं शरीरको नहीं । आप हमारी मूतियोको देखें उनको ध्यान में मग्न पावेंगे. हम इस ध्यानकी पूजा करते हैं और मूर्ति को इस वास्ते पूजते हैं कि वे हमको ध्यानकरनेको याद दिलाती हैं । हम चुतपरस्ती ( पाषाणपूजा ) नहीं करते हैं बल्कि हम मानसिक पूजा करते हैं । ये मूर्तियां केवल हमको हमारे इष्टदेवका स्मरण कराती हैं, जिस प्रकार प्रेमीजन मुद्रिका (अंगुठी) रखते हैं जिससे उनको अपने प्राण प्यारे याद आजाते हैं। हम पाषाण की प्रतिमा ओंको कभी नहीं पूजते बल्कि अपने इष्टदेवको पूजते हैं, हम इन पाषाणको मृतियोंका केवल इसलिये आदर करते हैं कि हमारे इष्टदेवकी प्रतिनिधि है और हम अपने प्रिय इष्टदेवोंकी मूर्तियों का क्यों नहीं सन्मान करें कि जिन्होंने बुराई मलाई और नग्नताके ख्यालको दिलसे भुलाकर मोक्षकी प्राप्तिकी और जो अपने पीछे हमारी शिक्षा के लिये अपना नमुना (आदर्श) छोड़ गये जिससे हम अपने जीवनको उनकासा उत्कृष्ट बनासके और ऐसा करने से उन्हाने लोग फैलो ( Loung ieilww ) के कहनेको सत्य दिखा दिया:'महापुरुपक जीवन हमको याद दिलाते हैं कि हम अपने जीवनको उत्कृष्ट बनासक्त हैं और मरकर अपने पीछे कालकी चालूपर चिन्ह छोड़ सके हैं. (i हमारा उपकार करनेवाले नग्न तीर्थकरों की नग्न मृतियोंको अपने आत्मीक लाभके लिये पूजन में क्या हानि है जब कि हम देखते हैं कि उनमें हमारे इप्रका ध्यान दशीया हुआ है और वे हमको हरएक प्रभात के समय हमारे इष्टदेवोंकी याद कराने में हमको सहायता देती है महाशय ! मैं आशा करता हूं कि उनलोगों के लिये यह जवाब काफी होगा जो पूछते हैं कि जैनी नग्न मूर्तियों को क्यों पूजते हैं। महाशयों ! आप याद रक्खें कि यहबात भी हमारी प्राचीनताको पृष्ट करती है कि हमारी मूर्तिया नम है और हमारे साथ नंगे रहते हैं। जनमत ऐसे समय में प्रचलित हवा जब मनुष्य वाल्यावस्थाही में थे, जब बे और निरपराध बालकोंकी तरह न रहस थे और जब कि उनके नम होते हुए भी लोग उनसे ऐसी प्रीति करते थे जैसी कि हम अपने बच्चों से करते हैं, उस समय नाक कोई ख्याल नहीं था ॥ महाशयो ! अब मैं अपना व्याख्यान समाप्त करता हूँ मैंने जैनमतपर जो मुझको समाप्ि संमारके सबसे उत्तम मालूम होता है अपना व्याख्यान खतम कर दिया है । महाशयो ! मुझको इसबातका अभिमान है कि मैंने जैनीके कुलमें जन्म लिया । मैं या
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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