SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. अर्हतका वर्णन करता है कि जो कोंका, बैंका और कुटकका राजा था. वह लिखता है कि अर्हत् अपने देशके लोगोंसे ऋषभका चरित्र सुनकर कलियुगमें जैनमत चलावैगा जिसके माननेवाले ब्राह्मणांसे घृणा करेंगे और नरकमें जायंगे__ यस्य किलानुचरितमाश्रमातीतमुपाकरवि कोंकवेंककुटकानां राजाईनामोपशिक्ष्यकलावई उत्कृष्यमाणं भवितव्येन विमोहितः स्वधर्मपथमकुतोभयमपहाय कुपथपाखंडमसमञ्जसं निजमनीपया मन्दः संप्रवर्तयिष्यते ॥९॥ येन हवावकलौ मनुजाप सदा देवमायामाहिनाः स्वविधिनियोगशौचचारित्रविहीना देवहेलनान्यपव्रतानि निजनिच्छया गृह्णाना अस्नानां च मनाशीचकेशोलुञ्च नादतिकलिनाऽधर्मबहुले नापहर्ताधरा ब्रह्मवामणयज्ञपहपलोकविदूषकाः प्रायेण भविष्यन्ति ॥ १० ॥ ते च हावतिनया निजलोकयात्र बान्धपरंपग्याश्वस्तास्तमस्यन्ध स्वयमेव प्रयतिष्यन्ति ॥ ११ ॥ (पंचमस्कंध अ६) .. अर्थ-जिनके चरित्रको सुनकर कांक, बैंक, कटकदेशीका गजा श्रीअर्हन नामक उनकी ( श्रीऋषभ देवकी ) शिक्षालेवार पकौके कारण कलियुगमें जब अधर्म बहुत होजायगा तब अपने धर्मके मार्गको छोड़कर अपनी बुद्धिसे कुपथ पाखण्डमतको जो सबके विरुद्ध होगा चलावेगा ॥ ९ ॥ जिसके द्वारा कलियुगमें प्रायः एस निकृष्ट पुरुष होजायेंगे जो देवमायासे मोहित होकर अपनी विधि शौच और चारित्रभ हान. देवताओंकी निरादरता, जिनमें हो ऐसे कुत्सित व्रतों अर्थात् स्नान, आचमन और शौचका न करना और केशलंचन इ. त्यादि व्रतोंको अपनी इच्छासं धारण करेंगे और जिममं अधर्म अधिक है ऐसे कलियुगसे नष्टबुद्धिवाले वेद, ब्राह्मण, विष्णु और संसारक निन्दक होंगे ॥ १०॥ जिनके मतका मूल बंद नहीं है ऐसे वे पुरुष अपनी इच्छानुसार चलनेसे और अंधपरम्परासे विश्वास करनेसे खुद ही घोर अंधकारमें पड़ेंगे ।। ५१ ॥ ऐसा कभी भी कोई राजा नहीं हुआ और जहांतक मैं खोज करसका न किसी और ब्राह्मणों के ग्रंथमें जहां शब्द अर्हत् आया है उसको कोंक, वेंक और कुटकका राजा लिखा है । अर्हत् शब्दका अर्थ प्रशंसनीय ( तारीफके लायक ) है यदि यह शब्द अर्ह धातुसे निकला है जिसका अर्थ स्तुति करना है । इसका अर्थ वैरियोंका नाशकरने वाला भी हो सका है यदि यह शब्द अरिहंत हो तो । यह शब्द अरिहन शिवपुराणमें आया है.. , अरिहन्निति तन्नामधेयं पापप्रणाशनम् । भवद्भिश्वेचकर्तव्य कार्य लोकसुखावहम् ॥३१॥
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy