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________________ २४ जैनधर्मपर व्याख्यान: जाना बिल्कुल बेफायदा है। यदि श्राद्धकरनेसे देव संतुष्ट होते हैं तो फिर जो मनुष्य मकानकी छतपर बैठे हैं उनको नीचेसे भोजन क्यों नहीं देते ? मनुष्यको चाहिये कि जबतक शरीर में प्राण रहे, तबतक सुखसे रहे और शरीरको घी दूध इत्यादि वस्तुओंसे पृष्ट रक्खे. चाहे ऋणी ( कर्जदार ) भले ही होजाय. जब एकबार शरीर भस्म होजाता है तो फिर वह कैसे मिलसक्ता है ? अगर यह बात सत्य है कि देहसे निकलकर जीव परलोक में जाता है तो वह भाईबन्धोंके स्नेहसे व्याकुल होकर फिर क्यों नहीं लौट आता ? इसकारण ब्राह्मणोंने मरेहुये मनुष्योकेलिये जो श्राद्धादि बना रक्खे हैं वह केवल अपनी जीविका पैदा करनेके लिये ही बनाये हैं. इनसे और कुछ मतलब नहीं हैं और न इनसे कहीं कोई दूसरा फलही प्राप्त होता है, तीनों वेदों के बनानेवाले भांड़ ठग और राक्षस थे और पंडितोंके ऐसे प्रतिष्ठित कुलमेंसे थे जैसे कि जफरी तुरी इत्यादि । अश्वमें जिन २ बुरे काम करने की आज्ञा रानीको दी है बे सब और पुरोहितोंको कई प्रकारको दक्षिणा देना मांड़ोने चलाई है और मांसभक्षणकी निशाचरों [ राक्षसों ] ने आज्ञा दी है. ( सर्वदर्शन संग्रहपृष्ठ ६-७ कलकत्तेकी छपी 1 नये भाराम तलब मनुष्य जो वेदकी निन्दा करते थे चार्वाक थे । डाक्टर राजेन्द्र लालमित्रने योगसूत्रपर एक पुस्तक बनाई हैं. उसकी भूमिकाके १० पृष्ठमें कहते हैं कि सामवेदमें एक सन्यासीका वर्णन आया हैं जिसने वेदको निन्दा की थी और जिसका धन भृगुको देदिया गया था । वह यह भी कहते हैं कि ऐतरेय ब्राह्मण नामक पुस्तक लिखा है कि ऐसे कईयतियोंको यह दंड दिया गया था कि व शृगाल अर्थात् गोदडोंके सामने फेंक दिये गये थे । ऋग्वेद के तीसरे अष्टक अध्याय ३ वर्ग २१ ऋचा १४ में उन मनुष्यांका कथन आया हैं जो कीकट; वा मगधर्मे बसते थे और जो यज्ञ और दान आदिको बुरा बतलाते थे किंकृण्वतिकीकटेषु गावोनाशिरंदुन्हेनतर्पान्तधर्मम् । आनोभरमगन्दस्यवेदार्न चाशास्त्रं मघवबंधयानः ॥ सायनभाग्य - हे इन्द्रकीकटेषु अनार्यनिवासेषु जनपदेषु यद्वा कृताभियागदान होमलक्षणाभिः क्रियाभिः किं फतिष्यतीत्यश्रदधानाः प्रत्युतपिवतस्वादता यमेवलाकोनपरइतिवदन्तोनास्तिकाः की कटास्तेषुगावस्तेतवर्किं कृण्वंति नक्कचित्तवोपयोग कूर्वतीत्यर्थः अनुपयोगंदर्शपति आशिरं सोममिश्रणयोगं पयः न दुन्हेन दुहंति किंचधर्मं Harमाख्यकमोपयुक्तं महावीरपात्रं स्वपः मदानद्वारेण नवपन्तिनदीपर्यंति एतेनसात्री य्याद्यर्थमपिनोपयुज्यन्तइत्यपिसूचितं भवति एवंकचिदपि वैदिककर्मणि अनुपयुक्ता -
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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