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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. १७ जिनको मैने पढ़ा है उनसे मै बेखटके जैनियोंकी तरफसे जिनका मैं यहां प्रतिनिधि हूं, यह कहसक्ता हूं कि नातपुत्त, निर्बंध, उनका मत और श्रावक जिनका कथन वौद्धग्रंथो में आया है जैन हैं. केवल इतना ही नहीं वल्कि बौद्धोंकी पुस्तकोंमें चातुर्यामधर्म वा पार्श्वनाथके चार महाव्रतोंका भी जिकर आया है और भूलसे इनको महावीर अथवा नात पुत्तके मुखसे वर्णन किया हुआ बतलाया है । सुधर्माचार्यका गोत्र और महावीरके निर्वाणका स्थान भी बौद्धोंने लिखा है । मुझको यह बात भी नहीं छोड़नी चाहिये कि निद्र्य शब्दका इस्तेमाल केवल जैनसाधुओंके लिये ही होता है । श्रमण और ब्राह्मण शब्दोंको जैनी और बौद्ध दोनो अपने २ साधुओंके लिये इस्तेमाल करते हैं । यह बात भी विचारके योग्य है कि बार्थ ( Barth ) साहब जो जैनियों को बौद्धों की शाखा समझते हैं निर्ग्रथोंका जिनका जिकर अशोकके आज्ञापत्रोंमें भाया है जैनियोंके पुस्खा बतलाते हैं । उनको जैकोबी ( Jacobi ) और बृहलर ( Btihler ) दोनों अंगरेजोंकी तहकीकात से आश्चर्य भी हुआ है. यद्यपि वह कहते हैं कि जबतक और प्रमाण नहीं मिले तबतक ठहरना चाहिये । यह उन्होंने सन् १८०२ ई० में लिखा था और जैकोबी (Jacobi) साहबने 'पूर्वको पवित्र पुस्तकोंकी जिल्द नं० ४५, (Sacred Books of the East Vol. XLV ) नामक पुस्तकमें सन् १८९५ ई० में इसके विशेष प्रमाण दिये हैं। ra महाशयो ! विचार कीजिये कि जब ईस्वी संवत से तीनचार सौ वर्ष पहलकें बौद्धग्रंथोंमें जैनियोंका इस प्रकार कथन आया है तो वे कैसे बोद्धमतकी शाखा समझे जासकते हैं। अब हम जैनशास्त्रोंको देखते हैं । दर्शनसारग्रंथमें जो संवत् ९९० में देवनन्दि आचायेने उज्जैनमें रचा था, लिखा है कि- पार्श्वनाथके तीर्थमें ( अर्थात् जैनशास्त्र. पार्श्वनाथ और महावीरके भर्हत होने के बोचके समय में ) बुद्धिकीर्ति नामक साधु शास्त्रवेत्ता और पिहिताश्रवका शिष्य था. यह पलाशनगर में सरयूनदी के तटपर तप कररहा था. उसने कुछ मरीहुई मछलियां अपने पास बहती हुई देखी उसने सोचा कि मरी हुई मछलियोंका मांस खानेमें कुछ दोष नहीं है क्योंकि इनमें जीव नहीं हैं. ऐसा समझकर उसने तप छोड़ दिया और लालवस्त्र पहनकर बौद्धमतका प्रचार किया- सिरि पासणाहतित्थे सरउतीरे पलासणयरत्थे ॥ पिहिआसवस्त सीहे महाकुद्धो बुद्धकीत्ति मुणी ॥ ६ ॥ तिमि पूरणासणेया अहिगयपब्बज्जावओपरमभट्ठे रतंबरंधरिता पवद्वियं तेण एयत्तं ॥ ७ ॥
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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