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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. नोंकी राय जो जैनधर्मके बाबत करीव २ कुछ नहीं जानतेजसूर गलत होगी.मान सके हैं कदापि नहीं. विशेषकर जब उनकी राय पुष्टकरनेकेलिये इस हेतुके सिवाय और कोई सुबूत नहीं है कि यह मत एक दूसरेसें मिलते हैं। इन विद्वानोंको यह देखकर कि जैनधर्म बौद्धमतसे मिलता हैं ऐसा आश्चर्य हुआ कि वे एक को दूसरेको नकल समझने लगे और चूकि उनको जैनधर्मका बहुत कम हाल मालूम हुआ था, इसलिये उन्होंने इसका ज्यादा हाल जाननेके पहिले ही इसको बौद्धमतकी शाखा समझ लिया । यह युक्ति स्वयं अनुचित्त है, एक मत दूसरेकी सर्वथा नकलकर सकता है परन्तु इससे इस बातके कहनेका कोई अधिकार नहीं है कि पहिला दूसरेसे निकला वा दूसरा पहले सें, लेकिन हमको केवल इसीबातपर संतोष नहीं करना चाहिये वल्कि हमको देखना चाहिये कि हिन्दू, बौद्ध और जैनियों के धर्मशास्त्रों में भी कहीं जैनियोंको बौडॉकी शाखा बतलाया है या नहीं। हिन्द आचार्योंने जैनियोंको बौडोंकी शाखा कहीं नहीं बतलाया है. वे सदा इनको दो स्वतंत्रमतावलम्बी बनलाते रहे हैं। माधवक शंकरदिग्विजय नामक सात पुस्तकम लिखा है कि शंकरका उज्जैनके समीप जैनियों ही से शास्त्रार्थ नहीं हुआ बल्कि काशीमें बौद्धोंसे भी हुआ था. यही आनन्दगिरिके शंकरदिग्विजय पुस्तक और सदानन्दके शंकरबिजयसार ग्रंथमें लिखा है, माधव अपने सर्वदर्शनसंग्रह ग्रंथमें जैनदर्शनोंकी बौद्ध दर्शनसे अलग उन १६ दर्शनोंमें गणना करता है जो १४ वीं सदी में दक्षिणमें प्रचलित थे. सदानन्द काश्मीरवाला अपने अद्वैतब्रह्मसिद्धि नामक पुस्तकमें जैनियों और बौद्धों दोनोंके दर्शनोंका कथन करता है. यह बात विचारके योग्य है कि वह वौद्धोंके चार भाग करता है (१) वैभाषिक (२) सौत्रान्तिक (३) योगाचार और (४) माध्यमिक, परन्तु वह इनमें जैनियोंको शामिल नहीं करता. ___ माधव भी अपने सर्वदर्शनसंग्रह नामक ग्रंथम जैनियोंको बौद्धोंकी चार शाखाओम शालिम नहीं करता. ते च बौद्धाश्चतुर्विधया भावनया परमपुरुषार्थ कथयन्ति । ते च माध्यमिकयो गाचारसौत्रान्तिकवैभाषिकसंज्ञाभिः प्रसिद्धा बौद्धाश्च यथाक्रमं सर्वशन्यत्वबाह्यशून्यत्व बाह्यर्थानुमेयत्व बाह्यर्थप्रत्यक्षत्ववादाना तिष्ठन्ते" अर्थ-वह बौद्ध चारप्रकारकी भावनासे परमपुरुषार्थको वयान करते हैं. वे माध्यमिक योगाचार, सौत्रान्तिक और वैभाषिक नामोंसे प्रसिद्ध हैं. माध्यमिक कहते हैं कि सारा
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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