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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. अर्थ-प्राण भी जाते हों तो भी म्लेच्छोंकी भाषा नहीं पढ़नी चाहिये और हाथी पावके नीचे कुचलकर मार डाले तो कुछ चिन्ता नहीं परंतु अपनी रक्षाके निमित्त जैनियोंके मंदिरमें नहीं जाना चाहिये। इन सब बातोंके मुख्य तीन कारण हैं ! ( १) तुच्छ समझना (२) नम्रता मिथ्या ज्ञान और (३) द्रोह अर्थात् योरूपके विद्वानोंका इस विषयको तुच्छ होने के कारण समझना, जैनियोंकी नम्रता और हिन्दुओं और जैनीयोंका परस्पर द्रोह ।मुल्क योरूपके विद्वानोंसे हमको बहुत लाभ हुआ. है उन्होंने वैदिक और बौद्धमतके साहित्यको बहुत कुछ प्रगट किया है और बहुतसी आश्चर्य दायक बातें दर्याफ्त की हैं. इन सबकेलिये हम उनको धन्य वाद देते हैं परन्तु ये सब मुझको अपने इस विश्वासके प्रगट करनेसे नहीं रोक सकती कि, वे मतोंके विषयको तुच्छ समझते हैं, वे मतोंके विषयमें खेल और किलोलें करते हैं, यह बात आप जैनमतके विषयमें तो अति सुगमतासे देख सकते हैं। जब कि, एक विद्वान् कहता है कि, जैनमत १२०० वर्षसे चला है, दूसरेकी राय है कि यह बौद्ध मतकी शाखा है और तीसरा इसको ब्राह्मणोंके मतसे निकला हुआ बतलाता है । कोई महावीरको इसका प्रचलित करनेवाला कहता है. कोई पार्श्वनाथको इसका स्थापन करनेवाला बतलाता है। धर्म ऐसी वस्तु नहीं है कि, उसके साथ इसप्रकार हास्य किया जाय ? उसके चारों ओर पवित्रतारूपी मंडल होता है, मानो वह किसी जादूसे घिरा हुआ है और इस प्रकारसे प्रगट की गई ऐसी २ विरुद्ध रायें इस जादूकी मायाको तोड़ डालती हैं और धर्मकी प्राचीनता और समीचीनता और पवित्रताको नष्ट कर देती हैं । हमको धर्मके विषयमें आदरसे कथन करना उचित है ॥ महाशयो ! आपने बालकों और मेंढकोंकी कथा सुनी होगी. कुछ बालक मेंढकों पर पत्थर फेंक रहे थे. एक वृद्ध मेंढक अपना मस्तक उठाकर कहने लगा ऐ बालको! जो तुम्हारा खेल है वह हमारे लिये मौत है। इसी प्रकार बूढा जैनधर्म कहसकता है कि हे विद्वानो ! जो तुम्हारेलिये खेल है वह मेरे लिये मौत है । इसमें कुछ संदेह नहीं कि, एक विहानकेलिये किसी मतके विषयमें अपनी राय दे देना एक तुच्छ बात है परन्तु वह उस मतकी प्राचीनता और पवित्रताके नाशका कारण हो सकती है । जैनी भी अत्यंत नम्रता जाहिर कर रहे हैं वे देख रहे हैं कि, उनके धर्मके साथ बडी निर्दयतासे बर्ताव हो रहा है. वे देख रहे हैं कि उनको बौद्धों और चार्वाकोंके साथ मिला दिया है. वे यह भी देख रहे हैं कि सब प्रकारकी अनिष्ट कल्पनायें उनके विषयमें प्रगट की जाती हैं परन्तु वे इन सबका संतोषसे सहन कर रहे हैं और कभी अपने बचावमें
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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