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________________ 410 JAINISM IN SOUTH INDIA महापुरुष कुरुक्षेत्र । वारणासि । गंगे । प्रयागे । अर्ध्यतीर्थ । पयोष्ण । गये । यम्नादेवि । नर्मदादेवि । तावि । गोदावरि । तुंगभद्रा fयंती पुण्यनविगळलं पापक्षयमेनिसुव महातीर्थगळलुमुभयमुखि कोटि कबिलेयं कोडं कोळगुमं पोचलं पंचरत्नदलु कहिसि चतुब्र्वेदपारगरप्प असंख्यात ब्राह्मण महातपोधन दानमं कोgaप्प फलवनेरिद स्वर्गदलनन्तकालं सुखमिरु [1] मद्वंशजाः परमहीपतिवंशजा वा पापादपेतमनसो भुवि भाविभूषा [1] ये पालयन्ति मम धर्ममिमं समस्तं तेषां मया विरचितोअलिरेष मूर्ध्नि ॥ [२३] सामान्योर्य धर्मसेतुर्नृपाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः [ 1 ] सर्व्वानेतान् भाविनः पार्थिवेन्द्रान् भूयो भूयो याचते रामचंद्रः ॥ [ २४ ] वसुधा बहुभिर्दता राजभिः सगरादिभिः [ । ] यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ [ २५ ] स्वदतां परदतां वा वो हरेत वसुंधर। [1] षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिहि (मिः) ॥ [२६] न विषं विषमित्याहु (हुर् ) देवस्वं विषमुच्यते[ । ] विषमेकाकिनं हंति देवस्वं पुत्रपौत्रकं ॥ [२७] शासनमिदावुदेल्लिय शासनमारिसरेके सलिसुबेनानी [1] शासनमनेंबपातकना सकळं रौरवडे गळगळनिळिगुं ॥ [२८] प्रियददिन्दिने काम पुरुषंगायुं महाश्रीयुमक्कुमिदं कायद पातकंगे पलवुं तीर्थंगळोळ् वारणा -[1] सियोक्कोटिमुनींवरं पशुगळं वेदाव्यरं कोंद मिक्कयशं पोंर्दुगुमेंदु सारिदपुदीशैळाक्षरं धात्रियोळ् [ २९ ] / हिन्दी सारानुवाद - जिनशासन चिर जीवे । तैलप द्वितीयसे त्रिभुवनमल्ल (विक्रमादित्य षष्ठ) तक चालुक्यराजाओंकी वंशावली । त्रिभुवनमलदेवने विस्तृत भूभागपर अपना शासन स्थापित किया । उसकी ज्येष्ठ रानी चन्दलदेवी अलन्देसासिर प्रान्तके अनेक प्रमुख गावोंपर शासन कर रही थी। उनका अधीनस्थ अनेक विरुदोंका धारी महामण्डलेश्वर बिब्बरस नामका सामन्त था जो कि अलन्दे प्रान्तके गोङ्का तालुकाके १२० गावोंमेंसे ६० पर अप्रतिहत शासन करता था । आचार्य कुन्दकुन्दकी स्तुति । उनसे लेकर अर्हन्नन्दि तक आचार्योंकी पट्टावली । अर्हन्नन्दीके शिष्यका श्रावकशिष्य रक्कसय्य था जो आत्रेयगोत्र में उत्पन्न विद्याप्रणी कोडिराजका पुत्र था । वह जैनधर्मपरायण था तथा सदा ही चारदान देता था । चौधरे रक्कलय्यकी प्रशंसा । उसकी पत्नीका नाम अक्कणव्वे तथा पुत्रका नाम शान्त अथवा शान्तिवर्मा था । वह भी जिनेन्द्रभक्त तथा आचार्य बाळचन्द्रका शिष्य था । उसकी पत्नीका नाम मल्लिक्क था । एक समय त्रिभुवनमल्लदेवने अपनी अतुलित शक्तिसे धारानगरीको जीतकर तथा उदयिके पुत्र जज्जुगि जगदेवसे भेंट कर लौटते समय रास्तेमें गोदावरी ( वस्तुतः नर्मदा ) नदीके किनारे कोटितीर्थ नामक स्थानपर पड़ाव डाला तथा शास्त्रोक्त विधिले तुलापुरुष उत्सव करके नाना दान व मंगल कर्म किये । उस शुभ अवसर पर महाप्रधान, मनेवेर्गडे (गृहसचिव), पत्तळेकरण ( अभिलेख आयुक्तक), दण्डनायक भीव्रणय्यने एक दानपत्र उपस्थित किया जो कि स्वीकार कर लिया गया । दानपत्रके अनुसार नृत्यविद्याधरी बन्दलदेवीके कल्याणके लिए चौधरे रक्कसय्य नायकने अपने अधीन गांव हडगिलेमें बने हुए शान्तिनाथ और पार्श्वनाथके मन्दिरमें नित्य अभिषेक और अष्टविधपूजनके लिये, जीवदयाष्टमीके विशेष उत्सव तथा अन्य उत्सवोंको मनानेके लिये, साधुओंको भोजन तथा मन्दिरकी मरम्मत करानेके लिये भूमि, १ बगीचा, १ कोल्हू तथा कुछ मकान दानमें दिये। यह दान मूलसंघ, देशिगगण, पुस्तक गच्छ, पिरियसमुदायके श्रीबालचन्द्र सिद्धान्तदेवके हाथोंमें सौंपा गया, और वह उनके शिष्य प्रशिष्यों द्वारा प्रतिपालनीय है । रक्कसय्य नायकने यह उत्कीर्ण शिलापट्ट इस लिये लगा दिया कि उसके उत्तराधिकारी और भावी राजागण सदा काल तक इसको चालू रखें । [ नोट-इस शिलालेखसे तत्कालीन राजनीतिक इतिहास, सामन्तपद्धति तथा धार्मिक इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । ]
SR No.011025
Book TitleJainism in South India and Some Jaina Epigraphs
Original Sutra AuthorN/A
AuthorP B Desai
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1957
Total Pages495
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size33 MB
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