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________________ प्रह सम परम पुरुप नै ममर, 'पग्म पुग्प नै मुध मन ममरया, पातम निरमल होय । निज में निज गुण परगट जोय, प्रह मम परम पुरुप नै समरू । ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, मुमति पदमप्रभ नाम । -सप्तम म्वाम सुपाम, चन्द्रप्रभ, सुविवि, शीतल अभिराम ॥१॥ श्रेयास, वासुपूज्य, जिन बन्दू विमल, अनन्त विशेप। धर्म, शान्ति, कुन्य, अर, मल्ली, मुनिसुव्रत तीर्थेश ।।२।। -नमि जिन, नेमिनाय, पारस प्रभु, चौवीसमा महावीर। भाव निक्षेप भजन करता जन, पाव भवधि तीर ॥३॥ सिद्ध अनन्त पाठ गुण नायक, अजरामर कहिवाय । 'तीन प्रदक्षिण देई प्रणमु, यिर कर मन वच काय ॥४॥ गोतम आदि इग्यारह गणधर, पांचारज ध्येय । 'पचवीम गुण युक्त विराज, उपाध्याय प्रादेय ॥५॥ अढी द्वीप पनग खेत्रा में, पच महाव्रत धार । समिति गुप्ति युत जो सुध साधु, बन्दू बारम्बार ॥६॥ दुपम पारे भरन क्षेत्र में, प्रगट्या भिक्ष म्बाम । अरिहन्त देव ज्यू धर्म दिपायो, पायो जग मे नाम ॥७॥ नय-गला पापा पनि देय] [५
SR No.010876
Book TitleShraddhey Ke Prati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Sagarmalmuni, Mahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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