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________________ जय जैनधर्म की ज्योति, जगमगती ही रहे। जिसको अपनाकर जनता, जड़ता जड़ मूल दह ।। 'मित्ति मे सब भुएसु वेरं मझ न केणई' । यह मूल मन्त्र समता का, (जिसे) अहिसा जैन कहे ।।१।। मुनियों के पच महाव्रत, अणुव्रत गार्हस्थ्य में। लो यथा शक्ति जिन-आगम कहते 'धम्मे दुविहे' ।।२।। आत्मा सुख-दु.ख की कर्ता, भोक्ता स्वयमेव ही। है 'अत्तकडे दुक्खे' सब, अपने कृत कर्म सहे ॥३॥ सत्करणी सबकी अच्छी, जैनेतर जैन क्या ? कहते जिन बाल तपस्वी भी 'देशाराहए' ॥४॥ है विश्व अनन्त अनादि, परिवर्तन रूप में। फिर स्रष्टा क्या सरजेगा, 'जव लोए सासए' ।।।। पुरुषार्थी वनो सुप्यारे, जो होना होने दो। दमितात्मा सदा सुखी है, 'अस्सि लोए परत्थए' ।।६।। आत्मा वनती परमात्मा, उत्कृष्ट विकास मे। नव तत्त्व द्रव्य षट् घटना, 'समदिष्टी सद्धहे' ॥७॥ लय-प्रभु पार्श्वदेव के चरणो में ७६] [श्रद्धेय के प्रति
SR No.010876
Book TitleShraddhey Ke Prati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Sagarmalmuni, Mahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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