SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : १४ : देव तुम्हारे श्रीचरणों में श्रद्धा का उपहार करं । भक्त हृदय के सादर सौ-सौ साधुवाद स्वीकार करें ।। कष्टों की परवाह भला क्या ? जब अपने को अभय किया । औरों को क्यों हो पीड़ा ? जब हमने सबको अभय दिया । संयम, समता और अभयता है यह मूल अहिंसा का । तुमने बतलाया इससे, होता उन्मूलन हिंसा का । इसी तत्त्व को हृदयगम कर, निज पर के सब पाप हरें ॥१॥ धर्म ग्रहिसा - संयम-तप-मय, सव जग का आधार यही । अभयदान से बढ़कर कोई देने में दातार नहीं । व्यसन पीड़ितों को यदि हम, व्यसनों की धुन से बचा सकें । बुरे पाप है, यही बात पापीष्टों को यदि जचा सकें । तेरे जीवन-मंथन से निष्कर्ष मिला, क्यों कर विसरे ॥२॥ भौतिकता के इस युग में अध्यात्मवाद का स्वाद मिला । है कृतज्ञ हम सभी तुम्हारे, सचमुच ही सौभाग्य खिला । पग-पग पर पाखण्ड पड़ा, प्रतिपद प्रवाह है पापों का । हा ! हा ! हिसा का हर घर-घर, आक्रन्दन अभिशापों का । प्राप्त अमर वरदान तुम्हारा, भवसागर का स्रोत तरें ||३| चाहें हम हर समय समन्वय पथ के हामी हो रहना । अपने सच्चे दृष्टिकोण को अविकल अटल रूप कहना । सदा मनोवल वढ़े हमारा सदाचार पनपाने में | रात्रि-दिन हो लगन हमारी तरने और तराने में इसी अटल विश्वास सहारे अजरामर पद सपदि वरें ||४|| लय- - रामायण ४० ] [ श्रद्धेय के प्रति
SR No.010876
Book TitleShraddhey Ke Prati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Sagarmalmuni, Mahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy