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________________ सम्पादकीय जैन धर्म में देव, गुरु और धर्म की त्रिपदी वह मदाकिनी है जिसके श्लाघा जल मे स्नात व्यक्ति अवश्य ही पाच मुक्त होता है । देव वे पुण्य श्रात्माए हैं जो भव-परम्परा के मार्ग और हैप के ट्रेल दुख से ऊपर उठ चुकी हैं, जिनका श्रज्ञांन रूप परम मिट चुका है। वे वर्तणुगत, जिन और तीर्थवर हैं । अपने परिपूर्ण जस्त के वे विश्वव्यापी है । भूत, वर्तमान और अनागत उनके लिए हस्तगरे नमक की तरह स्पष्ट हैं । के प्रत्ये श्रवसर्पण और उत्मर्पण के कालाध से चौबीस बोद्दीन होते हैं। वर्तमान संवसर्पण मे आदि देव ऋषभदेव थे और चौबा देव भगवान् श्री महावीर गुरु की गरिमा भगवान् श्री महावीर के शब्दो मे है- अग्निहोत्री विप्र जिम प्रकार नाना प्राहुतियो और मन्त्र-पदो से अग्नि की पूजा करता है, इसी प्रकार अनन्त ज्ञानी शिष्य को भी गुरु के प्रति श्रद्धाशील रहना चाहिए। वे गुरु श्रहिंमा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचय और अपरिग्रह इन पाच महाव्रतो का पालन करते हैं । ग्रात्म-नल्याण और जन-कल्याण उनके जीवन का सहज ध्येय होता है । वे भी अहित की तरह ही उपास्य और श्रद्धेय होते हैं । जैन धर्म मे ही नही, श्रय धर्मों में भी गुरु का स्थान ईश्वरोपम माना गया है । निर्गुण मार्गी श्री वीर कहते हैं 'सव धरती कागद करू, लेखनि सव वनराय । सात समुद की ममि करू, गुरु-गुन लिखा न जाय ॥' गुरुकृपा के सम्वन्ध मे वे कहते हैं 'पगुल मेरु सुमेरु उलधे, त्रिभुवन मुक्ता डोले । गूगा ज्ञान विज्ञान प्रकार्स, अनहद वाणी वोले ॥' धर्मं श्रात्म शुद्धि वा अनन्य साधन है । श्रवीतराग को वाणी मे दोषसभवता है, अत वह वीतराग को वाणी रूप है। धर्म का मूर्त श्रावार धर्म गम है, माधु मघ है, इसलिए वह भी श्लाघ्य और श्रद्धेय है । प्रस्तुत 'श्रद्धेय ये प्रति' पुस्तक में प्राचार्य श्री तुलसी से देव, गुरु व धर्म बीघा में की गई रचनाए हैं। उनको उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ये मुम्यत महावीर जयनी, चरम महोत्सव, मर्यादा महोत्सव मादि विशेष प्रवर्गो
SR No.010876
Book TitleShraddhey Ke Prati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Sagarmalmuni, Mahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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