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________________ २ : हमारे ऐसे सद्गुरु की सदा शिर छत्र छाया हो । सदा शिर छत्र छाया हो, शीघ्र पवित्र काया हो || धर्म रथ के वृषभ धोरी, सजोरी त्यागमय मूर्ति । तपोवल भाल पर जिन के, तजी सब जग की माया हो ॥१॥ अहिसा के पुजारी जो, झूठ को पीठ जीवन भर । स्वजीवन तुल्य पर - जीवन, वाक्य दिल में बसाया हो ॥२॥ अदत्तादान के त्यागी, विरागी भोग- भामिनी के । वदन में ब्रह्म की दीप्ति, चमकता सूर्य ग्राया हो ||३|| न जिनके धाम मठ मन्दिर, न अस्थल स्थल में अपनापन । समझ धन धूल सम, जीवन सुभिक्षा से निभाया हो ॥४॥ प्रपंचों से परे, पंचेन्द्रियां मन अपनी मुट्ठी में । शान्त रस सरस नस-नस में, रोव निज पर जमाया हो ||५|| तरे भवसिन्धु से प्राणी, शीघ्र परमार्थ पथ पाकर । मधुर उपदेश ही जिनका, कि ज्यों अमृत पिलाया हो ॥ ६ ॥ पतित पंखी, प्रहारी से, बने गुरु-शरण से पावन । स्वपर कल्याण ही 'तुलसी' लक्ष्य अपना वनाया हो ॥७॥ लय-गजल १८] [ श्रद्धेय के प्रति
SR No.010876
Book TitleShraddhey Ke Prati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Sagarmalmuni, Mahendramuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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