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________________ A सतरहवां अध्याय mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmarrior जाते हैं, यह निरीःभ्रान्ति है। इतिहास बतलाता है कि अनेक राजामहाराजा और सम्राट हो चुके हैं जो अपने जीवनकाल में अहिंसासिद्धान्त का पूर्ण ध्यान रखा करते थे और अहिंसा के नेतृत्व में बड़ेबड़े साम्राज्यों का संचालन किया करते थे। उनके यहां केवल. संकल्पजा हिंसा का त्याग था। आरंभजा. और विरोधी हिंसा का त्याग उन्होंने नहीं किया था। निरपराध जीव उनके यहां . . सर्वथा सुरक्षित रहते थे और अपराधी उनके यहां दण्डित होते थे। • केवल दुःख देने की भावना से उन को दण्ड, नहीं दिया जाता था, " बल्कि उनको शिक्षित करने के लिए, अन्याय और अनीति का प्रसार रोकने के लिए ऐसा किया जाता था । . . .... . इस प्रकार जब हम अहिंसा की बारीकियों में उतरते हैं और उन पर गंभीरता से विचार करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि . जैन-धर्म की अहिंसा न अव्यवहार्य है और न ही अनाचरणीय। प्रत्युत इस की सुविधापूर्वक पालना की जा सकती है और यह मानव-जीवन को पूर्णतया : व्यवस्थित करने के साथ-साथ उसे सात्विकता और प्रामाणिकता का पुज बना डालती है। अहिंसा-सिद्धान्त पर यह भी आक्षेप किया जाता है कि .. अहिंसा के प्रकार ने भारतवर्ष को कायर बना दिया है, और दासता की जांजीरों में जकड़ दिया है। इसमें कारण यह बताया जाता है कि . - हिसा-जन्य पाप से भयभीत भारतीय लोग शौर्य और वीर्य गंवा बैठे हैं। .... उसका फल यह हुआ कि यहां की प्रजा में युद्ध करने की भावना सर्वथा समाप्त हो गई और आक्रमणकारियों ने इस देश पर लगातार आक्रमण करके इस देश को अपने अधीन कर लिया । गंभीरता. . - . . . . . . * संकल्पना आदि . हिंसा-मेदों का अर्थ पीछे अहिंसा-प्रकरण में लिखा ... जा चुका है। ... - - -
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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