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________________ सतरहवां अध्याय : ८८२ rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrom~ पैने दांतों का जैसा उपयोग अपने शिकार के साथ करता है। वैज्ञानिक साधनों से सम्पन्न राष्ट्र भी दूसरे राष्ट्रों की छाती पर. आज अपने वैज्ञानिक साधनों का वैसा ही उपयोग करते दिखलाई देते हैं। फलतः युद्धों की सृष्टि होती है और राष्ट्रों का धन तथा : जनबल उनकी भेंट चढ़ा दिया जाता है। स्वार्थ का पिशाच मानवता की अरथी निकाल कर छोड़ता है । स्वार्थ की उपशान्ति किए बिना इन युद्धों को उपशान्त नहीं किया जा सकता। स्वार्थ-शमन केवल । . : अहिंसा के आश्रयण और प्रासेवन से ही हो सकता है। अहिंसा के . औषध विना इस महारोग का अन्य कोई प्रतिकार नहीं है। अहिंसा की उपयोगिता और उपादेयता का आज अनुभव किया जाने लगा है । युद्ध के महाविनाश ने युद्ध करने वालों को भी भयभीत कर दिया है और अहिंसा-तत्व पर विचार करने के लिए उन्हें भी विवश कर दिया है । अव लोग यह सोचने लग गए हैं कि . अहिंसा को छोड़ कर हम शान्ति पा नहीं सकते। अंव सब चाहते . हैं कि युद्ध न हों किन्तु युद्ध के जो कारण हैं उन्हें कोई नहीं छोड़ता। सर्वत्र राजनैतिक और आर्थिक संघटनों में पारस्परिक अविश्वास . और प्रतिहिंसा की भावना छिपी हुई है। दूसरों को बेवकूफ बना .. · कर अपना कार्य साधना ही सब का मूल मंत्र बना हुआ है। राष्ट्रों ... और जातियों के बीच में आज हिंसामूलक व्यवहार का प्राधान्य है। . स्वार्थपरता, बेइमानी, धोखेवाजी ये सव हिंसा के ही रूपान्तर हैं। इनके रहते हुए जैसे दो व्यक्तियों में प्रीति और मैत्री नहीं हो सकती। प्रीतिं और मैत्री की संस्थापना तो “जीयो और जीने दो" का सर्वोत्तम सिद्धान्त ही कर सकता है। जब तक विभिन्न जातियां .. और देश इस सिद्धान्त को नहीं अपनाते, तब तक विश्व को .. समस्याएं नहीं सुलझ सकती, वल्कि और उन में अधिक टकराव होगा । अतः विश्व की समस्याओं को सुलझाने के लिए राष्ट्रों की
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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