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________________ - सोलहवां अच्याय .. ...८६० raririmmmm~~~~~ का मन एक समय में एक ही काम कर सकता है, दो नहीं। इस . . नियम के अनुसार जब वह मूर्ति को देखता है तो उस समय मूर्तिमान भगवान् का स्मरण नहीं कर सकता, और जब वह मूर्तिमान भगवान् । का ध्यान करता है तो उस समय मूर्ति का साक्षात्कार नहीं कर सकता । भले ही मूर्ति सामने पड़ी हो, अांखें भी खुली हों, परन्तु मन के प्रभु-ध्यान-मग्न होने पर मूर्ति दृष्टिगोचर नहीं हो सकती। क्योंकि. मन को एक समय में एक ही काम करना होता है । मन जब प्रभु के गुणों में रमण करने लग जाता है तव उसका चक्षु इन्द्रिय से सम्बंध टूट जाता है। मन से असम्बन्धित चक्षु इन्द्रिय किसी भी पदार्थ का साक्षात्कार नहीं कर पाती। ऐसी दशा में मूर्ति मन को एकाग्र बनाने में कैसे कारण बन सकती है ? . .... प्रश्न-मति भगवान का प्रतीक है, उसके सम्र्पक से बुरे विचारों का नाश होता है, और अच्छे विचारों की उत्पत्ति होती है। अत: मूर्ति का सम्मान भगवान् के समान क्यों नहीं किया जाना चाहिए? - उत्तर-मूर्ति के सम्र्पक से बुरे विचार हट जाते हैं और अच्छे विचारों । ___की प्राप्ति होती है, यह भी कोई सिद्धान्त नहीं है और नाहीं ऐसा .. . संभव हो सकता है । व्यवहार भी इस बात का समर्थक नहीं है। एक ; - वात वताइए, जिस कमरे में भगवान् को मूर्तियां लगी हुई हैं, उस · · कमरे में रहने वाले स्त्री-पुरुषों के मन में क्या कभी विकार पैदा - नहीं होता ? वे सर्वदा निर्विकार रहते हैं ? और वे क्या वहां . .. अपनी वासना-पूर्ति करते हैं या नहीं ? उत्तर स्पष्ट है। वहां सब कुछ होता है। भोग-विलास की सभी प्रवृत्तियाँ वहां चलती हैं। दम्पती जीवन के विलासी जीवन में उस कमरे में अवस्थित भगवान् _ की मूर्तियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । यह सत्य प्रतिदिन हमारे
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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