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________________ ... चतुर्दश अध्याय ७२१ पानी नहीं रखना चाहिए । और वह यह भी कहती है कि साधु को अपना भोजन परिमित, नियमित और व्यवस्थित रखना चाहिए, ताकि उसे असमय में शौच जाने का अवसर ही न आने पाए। - छठा अन्तर है, प्रासुक पानी का । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक साधु केवल उष्ण जल को ग्रहण करते हैं। और वह विशेष रूप से... गृहस्थों द्वारा इन के निमित्त तैयार किया जाता है, तथापि उसे ग्रहण करने की प्रायः इन के यहाँ परम्परा पाई जाती है। किन्तु स्थानकवासी परम्परा में साधु को निमित्त बना कर तैयार किया गया, उष्ण जल तथा अन्य खाद्य या पेय भोजन ग्रहण करना साधु के लिए दोष माना गया है। साधु के ग्राहार-सम्बन्धी ४२ दोषों में प्राधाकर्म (साधु का उद्देश्य रखकर बनाना) यह एक दोष कहा ... गया है । अतः स्थानकवासी साधु उस उष्ण जल को ग्रहण नहीं करता, जो उस के निमित्त बनाया गया है। स्थानकवासो साधु . वही उष्ण जल ग्रहण करते हैं, जो इन को निमित्त बना कर तैयार नहीं किया गया है। स्थानकवासी साधु वरतनों का धोवन भी लेते हैं। रसोई के वरतनों को मांज कर उन का पहला और दूसरा धोवन गिरा देने पर तीसरा धोवन जो शेष रहता है, जिस में अन्न-करण या थन्दक . नही होती है, केवल राख के करण होते हैं, जो एकान्त में रख देने .. पर दो घड़ी के बाद राख के कणों के वैठ जाने पर विल्कुल साफ - और स्वच्छ निकल आता है, उस प्रासुक पानी को लेने की परम्परा स्थानकवासी साधुओं में पाई जाती है, किन्तु श्वेताम्बर मूर्तिपूजक - साधु उस पानी को ग्रहण नहीं करते । इसे वह झूठा और गन्दा कहते हैं। पर वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । रसोई के बरतनों का
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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