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________________ चतुर्दश अध्याय ७१७ और यात्रा करते रहते हैं । वस्तुतः ग्रात्मकल्याण के लिए आत्मविकारों को शान्त करने की आवश्यकता होती है । ग्रात्मविकार शान्त और क्षय किए बिना श्रात्मोन्नति नहीं हो सकती । भगवान महावीर ने भी किसी स्थानविशेष पर चक्रे लगाने का कहीं विधान नहीं किया । वल्कि उन्होंने तो यात्रा का अर्थ ही बड़ा विलक्षण किया है। श्री भगवती सूत्र, शतक १८, उद्देशक १० में लिखा है कि एक बार सोमिल ब्राह्मरण ने भगवान महावीर से पूछा कि प्रभो ! आप के यहां यात्रा का क्या स्वरूप है ? इस प्रश्न के समाधान में भगवान बोले- सोमिल ! मेरे यहां तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और ग्रावश्यक ग्रादि योगों में यतना-प्रवृत्ति करना ही यात्रा है । देखा, भगवान महावीर ने यात्रा का कितना अपूर्व श्रौर आत्मशोधक विवेचन किया है ? स्थानकवासी परम्परा इसी यात्रा में विश्वास रखती है । पर्वतों पर. या पर्वतों की गुफाओं में भ्रमण करने को यात्रा के रूप में स्वीकार नहीं करती, और उसने इस पर्वतभ्रमण को आत्मा की शुद्धि का कारण भी नहीं माना है । 1 : इस के अतिरिक्त स्थानकवासी परम्परा किसी स्थान - विशेष : को तीर्थ के रूप में नहीं देखती है । वह तो मन की शुद्धि को ही -तीर्थ मानती है । वैष्णवों के स्कन्धपुराण में भी इसी प्रकार का तीर्थ माना है । उस के काशीखण्ड ग्रध्याय ६ में कहा है सत्यं तीर्थ, क्षमा तीर्थ, तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया तीर्थ, तीर्थमार्जवमेव च ॥ १ ॥ दानं तीर्थ, दमस्तीर्थ, सन्तोषस्तीर्थमुच्यते । ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं, तीर्थं च प्रियवादिता ॥ २ ॥
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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